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Friday, May 23, 2014

Couple of Renderings from Kamayani, the Great Hindi Epic

Kama-1, Kamayani. Jai Shankar Prasad

मैं देख रहा हूँ जो कुछ भी
वह सब क्या छाया उलझन है?
सुंदरता के इस परदे में
क्या अन्य धरा कोई धन है?
Is my vision of all I see a shadowy snare?
Or, the veil of beauty has some treasure unaware?

Kama-2
"यह नीड़ मनोहर कृतियों का
यह विश्व कर्म रंगस्थल है,
है परंपरा लग रही यहाँ
ठहरा जिसमें जितना बल है।
This world is a play theatre of nesty pleasant works,
The governing principle is that the strongest remain on earth

देखा तो सुंदर प्राची में
अरूणोदय का रस-रंग हुआ।
Behold in the beautiful east
the joyous blushing of the dawn!

Thursday, December 20, 2012

"He will be called Wonderful" (Isaiah 9:6)


"He will be called Wonderful" (Isaiah 9:6)

1. His NAME is Wonderful (Judges 13:18)
2. His WORKS are Wonderful (Psalm 111:2-4)
3. His WORDS are Wonderful (Psalm 119:129)
4. He HIMSELF is Wonderful (Isaiah 28:29)
He is Wonderful in Wisdom and Counsel



उसका नाम अद्भुत...रखा जाएगा (यशायाह 9:6)
1. उसका नाम अद्भुत है (न्‍यायियों 13:18)
2. उसके काम अद्भुत है (भजन 111:2-4)
3. उसके वचन अद्भुत है (भजन 119:129)
4. वह स्‍वयं अद्भुत है (यशायाह 28:29)
वह बुद्धि और युक्ति में अद्भुत है।

He will be called Wonderful (Isaiah 9:6)

"He will be called Wonderful" (Isaiah 9:6)

1. His NAME is Wonderful (Judges 13:18)
2. His WORKS are Wonderful (Psalm 111:2-4)
3. His WORDS are Wonderful (Psalm 119:129)
4. He HIMSELF is Wonderful (Isaiah 28:29)
He is Wonderful in Wisdom and Counsel



उसका नाम अद्भुत...रखा जाएगा (यशायाह 9:6)
1. उसका नाम अद्भुत है (न्‍यायियों 13:18)
2. उसके काम अद्भुत है (भजन 111:2-4)
3. उसके वचन अद्भुत है (भजन 119:129)
4. वह स्‍वयं अद्भुत है (यशायाह 28:29)
वह बुद्धि और युक्ति में अद्भुत है।

Monday, December 17, 2012

मसीही नीतिशास्‍त्र, परिवार और समाज में

मसीही आचार संहिता 
परिवार में

माता-पिता के लिए निर्देश

1. अपने बच्‍चे को प्रोत्‍साहित करें
हे बच्चेवालों, अपने बालकों को तंग न करो, न हो कि उन का साहस टूट जाए। (कुलु 3:21)
उनके साहस को न तोडें। उन्‍हें उदास, हताश, चिडचिडा, छोटा, नीचा, या घटिया मेहसूस होने न दें।
उन्‍हें अच्‍छी अच्‍छी वस्तुऐं दें, जैसा हमारा पिता परमेश्‍वर भी हमें प्रेम से सारी वस्‍तुऐं देता है। (लूका 11:11-13)
2. जब बच्‍चे जवान है तभी उन्‍हें अनुशासन सिखादें ।
जबतक आशा है तो अपने पुत्र को ताड़ना कर, जान बूझकर उसका मार न डाल। (नीति 19:18)। अनुशासन की शिक्षा देना प्रेम की ही निशानी है। ( इब्रा 12: 6:10)
3. प्रभु की शिक्षा, और चितावनी देते हुए, उन का पालन- पोषण करो।
और हे बच्चेवालों अपने बच्चों को रिस न दिलाओ परन्तु प्रभु की शिक्षा, और चितावनी देते हुए, उन का पालन- पोषण करो।। (इफि 6:4)

- उन्‍हें शिक्षा देंलड़के को शिक्षा उसी मार्ग की दे जिस में उसको चलना चाहिये, और वह बुढ़ापे में भी उस से न हटेगा। (नीति 22:6)और बालकपन से पवित्र शास्त्रा तेरा जाना हुआ है, जो तुझे मसीह पर विश्वास करने से उद्धार प्राप्त करने के लिये बुद्धिमान बना सकता है। (2तिम 3:15)- उन्‍हें अनुशासन में रखेंजो बेटे पर छड़ी नहीं चलाता वह उसका बैरी है, परन्तु जो उस से प्रेम रखता, वह यत्न से उसको शिक्षा देता है। (नीति 13:24)लड़के के मन में मूढ़त बन्धी रहती है, परन्तु छड़ी की ताड़ना के द्वारा वह उस से दूर की जाती है। (नीति 22:15)लड़के की ताड़ना न छोड़ना; क्योंकि यदि तू उसका छड़ी से मारे, तो वह न मरेगा। तू उसका छड़ी से मारकर उसका प्राण अधोलोक से बचाएगा। (नीति 23:13)छड़ी और डांट से बुद्धि प्राप्त होती है, परन्तु जो लड़का योंही छोड़ा जाता है वह अपनी माता की लज्जा का कारण होता है। (नीति 29:15)अपने घर का अच्छा प्रबन्ध करता हो, और लड़के- बालों को सारी गम्भीरता से आधीन रखता हो। (जब कोई अपने घर ही का प्रबन्ध करना न जानता हो, तो परमेश्वर की कलीसिया की रखवाली क्योंकर करेगा)। (1तिम 3:4-5)
4. बच्‍चों को तंग न करें, उन्‍हे रिस न दिलाये, न उनके साहस को तोडें (कुलु 3:21, इफि 6:4)
5. अपने घर के लिए प्रबंध करें
पर यदि कोई अपनों की और निज करके अपने घराने की चिन्ता न करे, तो वह विश्वास से मुकर गया है, और अविश्वासी से भी बुरा बन गया है। (1तिम 5:8)वह अपने घराने के चालचलन को ध्यान से देखती है, और अपनी रोटी बिना परिश्रम नहीं खाती। (नीति 31:27)बच्‍चों के लिए निर्देश1. सब बातों में अपने अपने माता- पिता की आज्ञा का पालन करो, क्योंकि प्रभु इस से प्रसन्न होता है।(कुलु 3:20)2. प्रभु में अपने माता पिता के आज्ञाकारी बनो, क्योंकि यह उचित है।(कुलु 6:1)3. अपनी माता और पिता का आदर करें ताकि तुमहारा भला हो, और तुम धरती पर बहुत दिन जीवित रहों। (इफि‍ 6:2-3)4. उनकी सेवा करें। अपने माता- पिता आदि को उन का हक देना सीखें, क्योंकि यह परमेश्वर को भाता है। (1तिम 5:4)माता पिता की आज्ञा न माननेवालों पर परमेश्‍वर का कोप उतरता है (रोम 1:30,32)

विवाहित दम्‍पतियों के लिए निर्देश
1. दोनों एक तन के समान एक रहें।
इस कारण पुरूष अपने माता पिता को छोड़कर अपनी पत्नी से मिला रहेगा और वे एक तन बनें रहेंगे। (उत्‍प 2:24)। इसका यह मतलब भी है कि माता पिता या सांस ससुर दम्‍पति की एकता में हस्‍तक्षेप न करें।
2. वे एक दूसरे से अलग न हो। वि‍वाह के वाचा के प्रति‍ वि‍श्‍वासयोग्‍य रहें।
तुम में से कोई अपनेी जवानी की स्त्री से विश्वासघात न करे। क्योंकि इस्राएल का परमेश्वर यहोवा यह कहता है, कि मैं स्त्री- त्याग से घृणा करता हूं (मलाकी 2:15, 16)सो व अब दो नहीं, परन्तु एक तन हैं: इसलिये जिसे परमेश्वर ने जोड़ा है, उसे मनुष्य अलग न करे।तुम एक दूसरे से अलग न रहो; परन्तु केवल कुछ समय तक आपस की सम्मति से कि प्रार्थना के लिये अवकाश मिले, और फिर एक साथ रहो, ऐसा न हो, कि तुम्हारे असंयम के कारण शैतान तुम्हें परखे। (1कुरु 7:5)
3. वे एक दूसरे का हक पूरा करें।
पति अपनी पत्नी का हक्क पूरा करे; और वैसे ही पत्नी भी अपने पति का। (1कुरु 7:3)
4. वे एक दूसरे के आधीन रहें।
पत्नी को अपनी देह पर अधिकार नहीं पर उसके पति का अधिकार है; वैसे ही पति को भी अपनी देह पर अधिकार नहीं, परन्तु पत्नी को। (1कुरु 7:4)
और मसीह के भय से एक दूसरे के आधीन रहो।। (इफि 5:21)
5. वे आपसी सम्‍मति से और परमेश्‍वर की इच्‍छा की समझ के साथ सब कुछ करें। (1कुरु 7:5)
6. विवाह के सम्‍बन्‍ध को पवित्र बनाए रखें।
विवाह सब में आदर की बात समझी जाए, और बिछौना निष्कलंक रहे; क्योंकि परमेश्वर व्यभिचारियों, और परस्त्रीगामियों का न्याय करेगा। (इब्रा 13: 4)

पतियों के लिए निर्देश
1. अपनी पत्‍नी का सिर अथवा मुखिया और स्‍वामी वह हो।
पति पत्नी का सिर है जैसे कि मसीह कलीसिया का सिर है (इफि 5:23)जैसे सारा इब्राहीम की आज्ञा में रहती और उसे स्वामी कहती थी (1पत 3:6)
2. मसीह को अपना सिर अथवा मुखिया और स्‍वामी जानें।
हर एक पुरूष का सिर मसीह है: और स्त्री का सिर पुरूष है: और मसीह का सिर परमेश्वर है। (1कुरु 11:3)
3. जिस प्रकार मसीह कलीसिया से प्रेम करता है वैसे ही पति भी अपनी पत्‍नी से प्रेम करें।
हे पतियों, अपनी अपनी पत्नी से प्रेम रखो, जैसा मसीह ने भी कलीसिया से प्रेम करके अपने आप को उसके लिये दे दिया। (इफि 5 :25)इसी प्रकार उचित है, कि पति अपनी अपनी पत्नी से प्रेम रखता है, वह अपने आप से प्रेम रखता है। क्योंकि किसी ने कभी अपने शरीर से बैर नहीं रखा बरन उसका पालन- पोषण करता है, जैसा मसीह भी कलीसिया के साथ करता है इसलिये कि हम उस की देह के अंग हैं। (इफि 5 :28-30)हे पतियो, अपनी अपनी पत्नी से प्रेम रखो, और उन से कठोरता न करो। (कुलु 3:19)
4. अपनी पत्‍नी का आदर करें।
हे पतियों, तुम भी बुद्धिमानी से पत्नियों के साथ जीवन निर्वाह करो और स्त्री को निर्बल पात्रा जानकर उसका आदर करो, यह समझकर कि हम दोनों जीवन के वरदान के वारिस हैं, जिस से तुम्हारी प्रार्थनाएं रूक न जाएं।। (1 पत 3:7)
पत्नियों के लिए निर्देश
1. अपने पति के लिए एक ऐसा सहायक बनें जो उस से मेल खाए। (उत्‍प 2:18)
2. अपने पति के ऐसे आधीन रहें जैसे प्रभु के। (इफि 5:22)
पर जैसे कलीसिया मसीह के आधीन है, वैसे ही पत्नियां भी हर बात में अपने अपने पति के आधीन रहें। (इफि 5:24)
3. अपने पति के जीते जी उस से बन्‍धी रहें।
क्योंकि विवाहिता स्त्री व्यवस्था के अनुसार अपने पति के जीते जी उस से बन्धी है। (रोम 7:2)
यदि पति के जीते जी वह किसी दूसरे पुरूष की हो जाए, तो व्यभिचारिणी कहलाएगी (रोम 7 :3)
4. संयमी हो। (तीतुस 2:5)
5. वह पतिव्रता हो। (तीतुस 2:5)
6. वह घर का कारबार करनेवाली हो। (तीतुस 2:5)
7. वह भली स्‍वभाव की हो।
वह अपने जीवन के सारे दिनों में उस से बुरा नहीं, वरन भला ही व्यवहार करती है। (नीति 31:12)
और संयमी, पतिव्रता, घर का कारबार करनेवाली, भली और अपने अपने पति के आधीन रहनेवाली हों, ताकि परमेश्वर के वचन की निन्दा न होने पाए। (तीतुस 2:5) इसलिये कि यदि इन में से कोई ऐसे हो जो वचन को न मानते हों, तौभी तुम्हारे भय सहित पवित्र चालचलन को देखकर बिना वचन के अपनी अपनी पत्नी के चालचलन के द्वारा खिंच जाएं। (1पत 3:2)
8. बुद्धिमान हो।
हर बुद्धिमान स्त्री अपने घर को बनाती है, पर मूढ़ स्त्री उसको अपने ही हाथों से ढा देती है। (नीति 14:1)वह बुद्धि की बात बोलती है, और उसके वचन कृपा की शिक्षा के अनुसार होते हैं। (नीति 31:26)
9 . पति का भय मानने वाली हो।
पत्नी भी अपने पति का भय माने। (इफि 5:33)
10. अपने पतियों और बच्चों से प्रीति रखें। (तीतुस 2:4)
11. अपने पति की ओर ही लालसा हो। (उत्‍प 3:16)
12. अपने पति से सीखें ।
यदि वे कुछ सीखना चाहें, तो घर में अपने अपने पति से पूछें (1कुरु 14:35)
13 . परिश्रमी हो (नीति 31:12-30)।
- घर घर फिरकर आलसी रहने वाली न हो।ऐसे मूढ़ स्त्रियों के समान न हो जो- घर घर फिरकर आलसी होना सीखती है, और केवल आलसी नहीं, पर बकबक करती रहती और औरों के काम में हाथ भी डालती हैं और अनुचित बातें बोलती हैं। (1तिम 5:13)
14. शान्‍त स्‍वभाव के हो।
बरन तुम्हारा छिपा हुआ और गुप्त मनुष्यत्व, नम्रता और मन की दीनता की अविनाशी सजावट से सुसज्जित रहे, क्योंकि परमेश्वर की दृष्टि में इसका मूल्य बड़ा है। (1पत 3:4)झगड़ालू और चिढ़नेवाली पत्नी के संग रहने से जंगल में रहना उत्तम है। (नीति 21:19)स्त्री को चुपचाप पूरी आधीनता में सीखना चाहिए। (1तिम 2:11)
15. दिखावटी सिंगार करने वाली न हो।
और तुम्हारा सिंगार, दिखावटी न हो, अर्थात् बाल गूंथने, और सोने के गहने, या भांति भांति के कपड़े पहिनना। (1पत 3:3)वैसे ही स्त्रियां भी संकोच और संयम के साथ सुहावने वस्त्रों से अपने आप को संवारे; न कि बाल गूंथने, और सोने, और मोतियों, और बहुमोल कपड़ों से, पर भले कामों से। क्योंकि परमेश्वर की भक्ति ग्रहण करनेवाली स्त्रियों को यही उचित भी है। (1तिम 2:9-10)
16 . घर में किसको स्‍वागत करना और किसको नही, इस बात का समझ रखने वाली हो। यह इसलिए क्‍योंकि संसार में कई ऐसे झुठे शिक्षक और अपने आप को परमेश्‍वर के सेवक बताने वाले भेडियां है जो कलीसिया को तोडने के लिए घर घर को भडकानें की कोशीश करते है।
इन्हीं में से वे लोग हैं, जो घरों में दबे पांव घुस आते हैं और छिछौरी स्त्रियों को वश में कर लेते हैं, जो पापों से दबी और हर प्रकार की अभिलाषाओं के वश में हैं। और सदा सीखती तो रहती हैं पर सत्य की पहिचान तक कभी नहीं पहुंचतीं।और जैसे यन्नेस और यम्ब्रेस ने मूसा का विरोध किया था वैसे ही ये भी सत्य का विरोध करते हैं: ये तो ऐसे मनुष्य हैं, जिन की बुद्धि भ्रष्ट हो गई है और वे विश्वास के विषय में निकम्मे हैं। (2‍ि तम 3:6-9)यदि कोई तुम्हारे पास आए, और यही शिक्षा न दे, उसे न तो घर मे आने दो, और न नमस्कार करो। क्योंकि जो कोई ऐसे जन को नमस्कार करता है, वह उस के बुरे कामों में साझी होता है।। (2यूह 1:10,11)
17 . भरोसेमन्‍द और विश्‍वासयोग्‍य हो।
उसके पति के मन में उसके प्रति विश्वास है। (नीति 31:10)

कलीसिया में
विश्‍वासियों के लिए निर्देश
1. प्रार्थना में, शिक्षा में, और संगति में लगे रहे (प्रेरित 2:42; कुलु 4:12, प्रेरित 12:5, याकूब 5:15)
2. एक दूसरे से प्रेम रखें (रोम 12:10)
3. एक दूसरे का आदर करें (रोम 12:10)
4. एक दूसरे की मदद और सहायता करें (रोम 12:13; 1कुरु 16:1; गल 6:6)
5. पहनुाई और अतिथि सत्‍कार करने वाले हो (रोम 12:13; 1तिम 3:2)
6. एक दूसरे के दुखों को जानने वाले हो (रोम 12:15; गल 6:5; रोम 15:1-7)
7. नम्र हो (रोम 12:6)
8. भलाई करें (रोम 12:17)
9. उन्‍नति के वचन बालें (इफि 4:29)
10. एक दूसरे को संभालें (गल 6:1,2)
11. वफादार रहें (रोम 12:17; इफि 4:15, 25)
12. वचन द्वारा समझाने के लिए तत्‍पर रहें (2तिम 4:2)
13. एक दूसरे के आधीन रहें (1पत 5:5)
14. एक दूसरे के सहने वाले बनें (कुलु 3:13)
15. एक दूसरे को क्षमा करने वाले बनें (कुलु 3:13)

संसार में
नौकरी करने वालों के लिए
1. अपने मालिक का आदर करें (1तिम 6:1,2)
2. अपने मालिक के प्रति आज्ञाकारी रहें (इफि 6:5, 6-8; कुलु 3:23-25)
जो लोग शरीर के अनुसार तुम्हारे स्वामी हैं, अपने मन की सीधाई से डरते, और कांपते हुए, जैसे मसीह की, वैसे ही उन की भी आज्ञा मानो। और मनुष्यों को प्रसन्न करनेवालों की नाई दिखाने के लिये सेवा न करो, पर मसीह के दासों की नाई मन से परमेश्वर की इच्छा पर चलो। और उस सेवा को मनुष्यों की नहीं, परन्तु प्रभु की जानकर सुइच्छा से करो।
और जो कुछ तुम करते हो, तन मन से करो, यह समझकर कि मनुष्यों के लिये नहीं परन्तु प्रभु के लिये करते हो।-भय के साथ- एक मन से- जैसी की मसीह क आज्ञाकारी है- मनुष्‍यों को खुश करने के लिए नही- लेकिन मसीह के सेवक होने के नाते- परमेश्‍वर की इच्‍छा को पूरा करते हुएअर्थात, यदी कोई बात वचन के विरुद्ध है तो उसे न करें (घूस, रिश्‍वत, भ्रष्‍टाचार से दूर रहें)
2. उलटकर जवाब न दें।
अपने अपने स्वामी के आधीन रहें, और सब बातों में उन्हें प्रसन्न रखें, और उलटकर जवाब न दें। (तीतुस 2:9)
3. विश्‍वासयोग्‍य रहें ।
चोरी चालाकी न करें; पर सब प्रकार से पूरे विश्वासी निकलें, कि वे सब बातों में हमारे उद्धारकर्ता परमेश्वर के उपदेश की शोभा दें। (तीतुस 2:10)
4. आधीन रहें।
हे सेवकों, हर प्रकार के भय के साथ अपने स्वामियों के आधीन रहो, न केवल भलों और नम्रों के, पर कुटिलों के भी। क्योंकि यदि कोई परमेश्वर का विचार करके अन्याय से दुख उठाता हुआ क्लेश सहता है, तो यह सुहावना है। क्योंकि यदि तुम ने अपराध करके घूसे खाए और धीरज धरा, तो उस में क्या बड़ाई की बात है? पर यदि भला काम करके दुख उठाते हो और धीरज धरते हो, तो यह परमेश्वर को भाता है। (1पत 2:18-20)

स्‍वामियों के लिए निर्देश
1. धमकियां न दें। गाली गलौच न करें।
हे स्वामियों, तुम भी धमकियां छोड़कर उन के साथ वैसा ही व्यवहार करो, क्योंकि जानते हो, कि उन का और तुम्हारा दानों का स्वामी स्वर्ग में है, और वह किसी का पक्ष नहीं करता।। (इफि 6:9)
2. न्‍याय और ठीक ठीक व्‍यवहार करें। उनके मजदूरी या वेतन में अन्‍याय न करें। उनका शोषण न करें, क्‍योंकि परमेश्‍वर कठोर और अन्‍यायी लोगों को निर्दोष नही छोडेगा।
हे स्वामियों, अपने अपने दासों के साथ न्याय और ठीक ठीक व्यवहार करो, यह समझकर कि स्वर्ग में तुम्हारा भी एक स्वामी है।। (कुलु 4:1)एक दूसरे पर अन्धेर न करना, और न एक दूसरे को लूट लेना। और मजदूर की मजदूरी तेरे पास सारी रात बिहान तक न रहने पाएं। (लैव 19:13)
संसार के प्रति हमारा सामान्‍य कर्तव्‍य
1. संसार में शान्ति के लिए प्रार्थना करें (1तिम 2:1-4)
2. आदर के साथ सबसे व्‍यवहार करें।
सब का आदर करो, भाइयों से प्रेम रखो, परमेश्वर से डरो, राजा का सम्मान करो।। (1पत 2:17)3. बुराई के बदले किसी से बुराई न करो; जो बातें सब लोगों के निकट भली हैं, उन की चिन्ता किया करो। (रोम 12:17)
4. जहां तक हो सके, तुम अपने भरसक सब मनुष्यों के साथ मेल मिलाप रखो। (रोम 12:18)
5. मसीह की गवाही का जीवन जीयें ।
ताकि तुम निर्दोष और भोले होकर टेढ़े और हठीले लोगों के बीच परमेश्वर के निष्कलंक सन्तान बने रहो, (जिन के बीच में तुम जीवन का वचन लिए हुए जगत में जलते दीपकों की नाईं दिखाई देते हो)। (फिलि 2:15)
6. इस कारण जो कुछ तुम चाहते हो, कि मनुष्य तुम्हारे साथ करें, तुम भी उन के साथ वैसा ही करो; क्योंकि व्यवस्था और भविष्यद्वक्तओं की शिक्षा यही है।। (मत्ति 7:11)
7. किसी के कर्जदार न हो।
इसलिये हर एक का हक्क चुकाया करो, जिस कर चाहिए, उसे कर दो; जिसे महसूल चाहिए, उसे महसूल दो; जिस से डरना चाहिए, उस से डरो; जिस का आदर करना चाहिए उसका आदर करो।।आपस के प्रेम से छोड़ और किसी बात में किसी के कर्जदार न हो; क्योंकि जो दूसरे से प्रेम रखता है, उसी ने व्यवस्था पूरी की है। (रोम 13:7-8)

अधिकारियों के प्रति
1. उनका आदर करो (रोम 13:7)
2. उनके आधीन रहो (रोम 13:1, 1पत 2:13-16)
3. उनके लिए प्रार्थना करो (1तिम 2:2-4)

Thursday, December 6, 2012

इब्राहीम के समय का ऊर नगर

बाईबिल मे निर्दिष्‍ट ऊर दक्षिण मिसुपुतामिया में स्थित है। 1922 में सर लियोनार्ड वूल्‍ले के इस पुरातन नगर की खुदाई से पहले, बाईबिल में इस नगर का उल्‍लेख संदेहवादियों का खंडण और आलोचन का वस्‍तु बना रहा। लेकिन वर्ष 1922 से 1934 के दौरान इस स्‍थान में किये गए खुदाई ने न केवल इस पुरातन नगर के अस्तित्‍व को सिद्ध कर दिया परन्‍तु उस समय के उन्‍नत सभ्‍यता को भी उजागर किए है। आज यह स्‍थान पुरातत्‍व सम्‍बन्‍धी मण्‍डल में टेल एल-मुकय्यर (Tell el-muqayyar) के नाम से जाना जाता है, जो इराक में पाया जाता है।

 



ऊर नगर के खंडहर

फारस की खाडी पर फरात नदी के मुख पर स्थित एक बन्‍दरगाह हाने के कारण, ऊर नगर उस समय विश्‍व का सबसे उन्‍नत और ऐश्‍वर्यपूर्ण नगर के रूप में उभरा। खुदाई मे दौरान पाये गए रत्‍न, आभूषण, शस्‍त्र (रत्‍नों से अलंकृत), मकान, मिनार, इत्‍यादी इस नगर के वैभव और समृद्धि की ओ इशारा करते है। पुरातत्‍वेत्‍ता जे ए थॉम्‍पसन के अनुसार इस नगर का शासन पद्धति जटिल और वाणिज्‍य रीती सुविक्‍सित था। यहा तक की रसीद, इकरारनामा इत्‍यादी उद्देश्‍यों के लिए लिखावट का उपयोग किया जाता था। इस नगर में नालियां, गली, दो मंजिले मकान जो दस से बीस कमरों के थे, पाए जाते थे। नगर को अन्‍य प्रसिद्ध नगरों से जोड़ने हेतु व्‍यापार मार्गों की व्‍यवस्‍था भी थी। इस नगर से कारवां और जहाजों की सहायता से ऊन, ताम्‍बे और कीमती पत्‍थर निर्यात किए जाते थे। शिक्षा शालाओं की व्‍यवस्‍था भी थी जिसमें पढ़ना लिखना, अंकगणित, भूगोलशास्‍त्र, और धर्मविज्ञान की शि‍क्षा दी जाती थी।

 



विराट मंदिर मिनार जिग्गुरट

इब्राहीम के समय ऊर में ऊरनम्‍मू (नवीन सुमेरी-अक्‍कादी साम्राज्‍य और ऊर के तीसरे राजकुल ऊर-3 का संस्‍थापक, ई.पू. 2135-2035 के लगभग) का राज्‍य चलता था। ऊरनम्‍मू ने विराट मंदिर मिनार जिग्गुरट को बनाया। यह मिनार संभवत: बाबुल के गुम्‍मट के प्रतिरूप था। इब्राहीम और उसके परिवार के ऊर से कूच करने के समय ऊर-3 अमोरियों के आक्रमण के कारण पतन की आर अग्रसर था। इसका पतन ई.पू. 2000 के लगभग हो गया। ऊर नगर के निवासी च न्‍द्र देवता नन्‍नर और उसकी पत्‍नी निन्‍गल के उपासक थे, जिनके लिए उनहोने दो मंदिर भी समर्पित किए। एक नन्‍नर के लिए और एक निन्‍गल के लिए। चनद्र देवता के ये विशाल मंदिर और जिग्गुरट अनेक तीर्थ यात्रियों को ऊर के तरफ आकषिर्त करते थे। इब्राहीम ऊर नगर को ई.पू. 20 80-2070 के बीच में छोड़ा था।


References
Archer, L. Gleason, A Survey of Old Testament (Chicago: Moody Press, 1994)
Harrison, R.K., Introduction to the Old Testament (Grand Rapids: William B Eerdmans, 1969)
Hill, A.E. & Walton, John H., A Survey of the Old Testament (Grand Rapids: Zondervan Publishing, 1991)
Lasor, W.S., Hubbard, D.A., & Bush, F.Wm, Old Testament Survey (Grand Rapids: William B Eerdmans, 1982)
Merrill, Eugene H, An Historical Survey of the Old Testament, 2nd edn. (Grand Rapids: Baker Book House, 1996)
Thompson, J.A., The Bible and Archaeology, 3rd edn. (Grand Rapids: William B. Eerdmans, 1982)
Unger, Merrill F., Unger's Bible Dictionary, 3rd edn. (Chicago: Moody Press, 1966)
Willmington, H.L, Old Testament Survey (Wheaton: Tyndale House Publishers, 1992).

© Domenic Marbaniang, 2000.

Monday, February 13, 2012

विकासवाद की समस्‍याएं



विकिपीडिया के अनुसार विकासवाद (Evolutionary thought) की धारणा है कि समय के साथ जीवों में क्रमिक-परिवर्तन होते हैं।
जीवों में वातावरण और परिस्थितियों के अनुसार या अनुकूल कार्य करने के लिए क्रमिक परिवर्तन तथा इसके फलस्वरूप नई जाति के जीवों की उत्पत्ति को क्रम-विकास या उद्विकास (Evolution) कहते हैं। क्रम-विकास एक मन्द एवं गतिशील प्रक्रिया है जिसके फलस्वरूप आदि युग के सरल रचना वाले जीवों से अधिक विकसित जटिल रचना वाले नये जीवों की उत्पत्ति होती है। जीव विज्ञान में क्रम-विकास किसी जीव की आबादी की एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी के दौरान जीन में आया परिवर्तन है। हालांकि किसी एक पीढ़ी में आये यह परिवर्तन बहुत छोटे होते हैं लेकिन हर गुजरती पीढ़ी के साथ यह परिवर्तन संचित हो सकते हैं और समय के साथ उस जीव की आबादी में काफी परिवर्तन ला सकते हैं। यह प्रक्रिया नई प्रजातियों के उद्भव में परिणित हो सकती है। दरअसल, विभिन्न प्रजातियों के बीच समानता इस बात का द्योतक है कि सभी ज्ञात प्रजातियाँ एक ही आम पूर्वज (या पुश्तैनी जीन पूल) की वंशज हैं और क्रमिक विकास की प्रक्रिया ने इन्हें विभिन्न प्रजातियों मे विकसित किया है।

अंग्रेजी लेखक जी.के. चेसटरटन ने एक बार कहा कि जादू और विकासवाद में फर्क केवल समय की अवधी का है। उदाहरण के लिए, यदी कोई आकर आपसे कहे की संगमरमर के किसी खान में जोर का विस्‍फोट हुआ और वहा पर ताजमहल बन गया तो या तो आप उस व्‍यक्ति को झुठा कहेंगे या फिर समझेंगे की यह एक मजाक है। विज्ञान की अलौकिक-विरोधी प्रवृत्ति को जो स्‍वीकार नही करते वे तो इस बात को मानेंगे कि यदी कुछ ऐसा सचमुच हुआ है तो ये किसी का जादूई करिश्‍मा या चमतकार ही होगा।

विकासवाद का मानना है कि यह ताजमहल से भी जटिल संसार कई वर्षों में ब्रहमाण्‍ड में विस्‍फोटों और मिश्रनों का संयोग हैं। मानों सैकडों बंदर कम्‍प्‍यूटर पर अंधाधुंद हाथ चलाते चलाते कई शताब्‍दियों के पश्‍चात अचानक कालीदास के शकुंतला को लिख डाला। फर्क यही होता कि कालीदास को मालूम था कि वह क्‍या लिख रहा है परन्‍तु बनदरों को मालूम नही कि उनसे क्‍या रच गया। विकासवाद अंधा जगतीय संयोग पर आधारित है। इसलिए सार्त्र, कैमु, और नित्‍सचे जैसे लेखकों ने विकासवाद के संसार में मानव अनुभव को अर्थहीन और अनर्थक कहा है। नैतिक मूल्‍य,सत्‍य,न्‍याय ये सब बेअर्थ है। जगत का कोई बुद्धिमान स्रोत नही है तो जगत में बुद्धि का जि़कर एक मजाक ही है।

विकासवाद की समस्‍याएं कई है, उनमें से निम्‍न कुछ है।


1. विकासवाद तर्क के जमीन को उसके पांव तले से हटा कर सत्‍य के अस्तित्‍व को नकारता है। परन्‍तु सत्‍य के अस्तित्‍व को नकार कर वह सत्‍य पर दावे का अधिकार को खो देता है।
यदी संसार अकास्मित मिश्रनों का संयोग है,तो सत्‍य निरपेक्ष नही हो सकता क्‍योंकि जगत की क्रियाएं तो परिवर्तनशील है परन्‍तु सत्‍य परिवर्तनशील नही हो सकता। सत्‍य रविवार, सोमवार, और हर एक दिन एक समान ही है। परन्‍तु विकासवाद के अनुसार मानव मस्तिष्‍क अनुओं के अकास्मित मिश्रनों का संयोग है। इसलिए सत्‍य का अस्तित्‍व निराधार हो जाता है। लेकिन यदी सत्‍य का अस्तित्‍व नही है तो विकासवादी कैसे कह सकता है कि विकासवाद सत्‍य है? 

2. ऊष्मा-गतिकी के दुसरे नियम के अनुसार जगत में ह्रास ही स्‍वाभाविक है। यदी एक झोपडी को ऐसा ही छोड़ दिया जाए तो कुछ वर्ष पश्‍चात वह अपने आप कोई महल नही बन जाएगा। उसके विपरीत वह खंडहर बन जाएगा। पुन: क्षय से उसे वापस लाने के लिये बुद्धि और शक्ति की आवश्‍यक्‍ता है। परन्‍तु विकासवाद इस नियम के विरुद्ध में कहता है कि जगत में ह्रास नही परन्‍तु विकास स्‍वाभाविक है।
3. खोई कडियों की समस्‍या। यदी मछली से मैंडक का विकास हुआ और वानर से मनुष्‍य आए तों इन के मध्‍य के कडी कहा गए? वानर-मानव कही दिखते क्‍यों नही? उनका कही कोई जीवावशेष कही नही मिले। नियान्‍डरथल, जावा,इत्‍यादी सब मनुष्‍य जाती के ही अवशेष साबित हुए। पिल्‍टडाउन तो धोखा साबित हुआ।
4. विकासवाद का कोई यंत्र नही पता। विज्ञान अवलोकन और प्रायोगिक प्रमाण पर आधारित है। लेकिन न तो विकासवाद की कोई उपमा देखी जा सकती है न प्रयोग के द्धारा इसे साबित किया जा सकता है। यदी विकास का यंत्र पता होता तो न जाने कितने वानरों को मनुष्‍य... बनादिया जाता। यदी विकासवादी पुस्‍तकों को पढ़ें तो साफ लिखा जाता है कि जिस काल में विकास क्रम हुए, उस काल के वातावरण को हम नही जानतें। लेकिन यह तो अनुमान और कल्‍पना का एक बहाना ही है, विज्ञान नही।
और फिर, हमें यह तो मालूम ही है कि बिना जीवन या प्राण के डी.एन.ए. व्‍यर्थ है। अर्थात बिना जीवन के पदार्थ कें जटिल मिश्रनों से कुछ होने वाला नही। इसके अलावा बिना जीवन का डी.एन.ए का निर्माण ही असम्‍भव है।

© डॉ. डॉमेनिक मर्बनियांग


Thursday, September 29, 2011

त्रिएकता की महत्‍वपूर्णता

संजयनगर

त्रिएकता का सिद्धांत बाईबल में बडा महत्‍व रखता है। यह न केवल तर्कसंगत है बल्कि बाईबल आधारित है।

1. त्रिएकता सदगुण का आधार है

सदगुणों का अस्तित्‍व आनादीकाल से है। वे अनंत है इस कारण से निरपेक्ष्‍ा है। वे अनंत इस लिए है क्‍यों कि उनका अस्तित्‍व त्रिएकता परमेश्‍वर में है। परमेश्‍वर निर्गुण नही है। अगर वैसा होता तो भलाई और बुराई, शुभ एवं अशुभ का कोई शास्‍वत अर्थ नही रहता। बाईबल बताती है कि परमेश्‍वर प्रेम है। और प्रेम अनेकता में एकता का सदगुण है। यदी परमेश्‍वर जगत के निर्माण से पहले अकेला ही होता तो प्रेम अर्थहीन होता क्‍योंकि फिर वह किस से प्रेम करता। फिर प्रेम स्‍वयं एक लौकिक आवश्‍यकता बनती और इसका आलौकिक आधार नही होता। अनादीकाल से पिता, पुत्र, एवं पवित्रात्‍मा की एकता ही सदगुण का अनंत आधार है।

2. त्रिएकता संबंध का आधार है

भाषा में भी हम तीन व्‍यक्तित्‍व का प्रयोग जानते है। मै, तुम, और वह। अनंतकाल से त्रिएक परमेश्‍वर आत्‍मा का प्रेम के संबंध में एक है। यही एैक्‍य मनुष्‍यों में भी प्रेम पर आधारित रिश्‍तों का आधार है।
यह एकता अहम रहित है। यही सच्‍ची संगती और सहभागिता का आधार भी है।

3. त्रिएकता सत्‍य का आधार है

वही व्‍यक्तिवाचक एवं विषयवाचक का आधार है। यदी ईश्‍वर जगत के निर्माण से पहले त्रिएक न होता तो उसे किसी वस्‍तु का ज्ञान भी नही होता, अर्थात सत्‍य ज्ञान का अस्तित्‍व भी नही होता। पर पिता, पुत्र, एवं पवित्रात्‍मा अनादी काल से एक दूसरे के ज्ञान से परिपूर्ण है। यही जगत में भी सत्‍य का आधार है।

यह जानना आवश्‍यक है कि त्रिएकता का अर्थ त्रिमूर्तीवाद या तीनैश्‍वरवाद नही है। परमेश्‍वर तीन नही पर एक है। तीनों व्‍यक्तित्‍व की केवल एक ही तत्‍व है। और वे एक है। यह समझना मनुष्‍यों के लिए कठिन है, पर यह तर्क द्वारा अपेक्षित भी है।

Sunday, August 7, 2011

परमेश्‍वर को सदा धन्‍य कहना


पाठ - भजन 103: 1-5

प्रचारक - डॉ. डामिनिक मारबनियांग
स्‍थान - बुढार

Psa 103:1 हे मेरे मन, यहोवा को धन्य कह और जो कुछ मुझ में है, वह उसके पवित्र नाम को धन्य कहे!
Psa 103:2 हे मेरे मन, यहोवा को धन्य कह, और उसके किसी उपकार को न भूलना।
Psa 103:3 वही तो तेरे सब अधर्म को क्षमा करता, और तेरे सब रोगोंको चंगा करता है,
Psa 103:4 वही तो तेरे प्राण को नाश होने से बचा लेता है, और तेरे सिर पर करूणा और दया का मुकुट बान्धता है,
Psa 103:5 वही तो तेरी लालसा को उत्तम पदार्थोंसे तृप्त करता है, जिस से तेरी जवानी उकाब की नाईं नई हो जाती है।।

परमेश्‍वर को सदा धन्‍य कहना।
अपने मन को आदेश दें की मन परमेश्‍वर को धन्‍य कहें
- क्‍योंकि मन सब से अधिक धोखा देने वाला है
- कयोंकि मन परमेश्‍वर को धन्‍यवाद देने से पीछे हट जाता है

परमेश्‍वर को धन्‍य कहना है- सम्‍पूर्णता से. जो कुछ मुझ में है, वह उसके पवित्र नाम को धन्य कहे! यदि कुछ हममे ऐसा है जो उसके पवित्र नाम को धन्‍य नही कह सकता तो आज सम्‍पूर्ण समर्पण की आवश्‍यक्‍ता है।
- स्‍मरण करके. उसके किसी उपकार को न भूलना। अपने आप को उसकी भलाई याद दिलाने से स्‍वयं में गवाही होता है जिससे विश्‍वास मजबूत होता है। याद रखें कि वह हमारे सिर पर करूणा और दया का मुकुट बान्धता है। जब निराशा और अविश्‍वास का बादल छा जाएं तो अपने मुकुट को याद रखें।

परमेश्‍वर की आशीषेंक्षमा - वही तो तेरे सब अधर्म को क्षमा करता
स्‍वास्‍थ्‍य, सेहत - तेरे सब रोगोंको चंगा करता है
सुरक्षा - वही तो तेरे प्राण को नाश होने से बचा लेता है
संतुष्टि - वही तो तेरी लालसा को उत्तम पदार्थोंसे तृप्त करता है

वह हमें सम्‍पूर्ण रीति से आशीषित करता है। इसलिए आईए हम सम्‍पूर्ण जीवन से और उसके भलाईयों को स्‍मरण करते हुए उसे धन्‍य कहते रहेा

Saturday, July 2, 2011

Faith Births Miracles (John 6:1-14)

Text: John 6:1-14 (The Feeding of the Five Thousand)

After these things Jesus went over the Sea of Galilee, which is the Sea of Tiberias. Then a great multitude followed Him, because they saw His signs which He performed on those who were diseased. And Jesus went up on the mountain, and there He sat with His disciples. Now the Passover, a feast of the Jews, was near. Then Jesus lifted up His eyes, and seeing a great multitude coming toward Him, He said to Philip, "Where shall we buy bread, that these may eat?" But this He said to test him, for He Himself knew what He would do. Philip answered Him, "Two hundred denarii worth of bread is not sufficient for them, that every one of them may have a little." One of His disciples, Andrew, Simon Peter's brother, said to Him, "There is a lad here who has five barley loaves and two small fish, but what are they among so many?" Then Jesus said, "Make the people sit down." Now there was much grass in the place. So the men sat down, in number about five thousand. And Jesus took the loaves, and when He had given thanks He distributed them to the disciples, and the disciples to those sitting down; and likewise of the fish, as much as they wanted. So when they were filled, He said to His disciples, "Gather up the fragments that remain, so that nothing is lost." Therefore they gathered them up, and filled twelve baskets with the fragments of the five barley loaves which were left over by those who had eaten. Then those men, when they had seen the sign that Jesus did, said, "This is truly the Prophet who is to come into the world."(John 6:1-14)

1. The Supernatural Perspective of Faith

He said to Philip, "Where shall we buy bread, that these may eat?" .... Philip answered Him, "Two hundred denarii worth of bread is not sufficient for them,..." One of His disciples, Andrew, Simon Peter's brother, said to Him, "There is a lad here who has five barley loaves and two small fish, but what are they among so many?" Then Jesus said, "Make the people sit down."

The disciples had a natural and rational perspective; but, Jesus had a supernatural perspective. What reason sees as naturally impossible, faith sees as supernaturally possible.

2. The Spoken Word of Faith

Then Jesus said, "Make the people sit down."

The disciples were speaking negative words of fear. Jesus spoke the positive words of divine confidence.

3. The Specific Act of Faith

And Jesus took the loaves, and when He had given thanks He distributed them to the disciples, and the disciples to those sitting down; and likewise of the fish, as much as they wanted.

Jesus did not just speak faith, He acted according to it. Faith without works is dead. Do what you believe God can do through you!

4. The Sumless Power of Faith

So when they were filled, He said to His disciples, "Gather up the fragments that remain, so that nothing is lost." Therefore they gathered them up, and filled twelve baskets with the fragments of the five barley loaves which were left over by those who had eaten.

There is nothing impossible for Jesus and nothing impossible for those who believe in Jesus, i.e. those who walk according to His will.

Believe in Jesus and experience His miraculous power in your life right now!

Faith Births Miracles (John 6:1-14)

Text: John 6:1-14 (The Feeding of the Five Thousand)

After these things Jesus went over the Sea of Galilee, which is the Sea of Tiberias. Then a great multitude followed Him, because they saw His signs which He performed on those who were diseased. And Jesus went up on the mountain, and there He sat with His disciples. Now the Passover, a feast of the Jews, was near. Then Jesus lifted up His eyes, and seeing a great multitude coming toward Him, He said to Philip, "Where shall we buy bread, that these may eat?" But this He said to test him, for He Himself knew what He would do. Philip answered Him, "Two hundred denarii worth of bread is not sufficient for them, that every one of them may have a little." One of His disciples, Andrew, Simon Peter's brother, said to Him, "There is a lad here who has five barley loaves and two small fish, but what are they among so many?" Then Jesus said, "Make the people sit down." Now there was much grass in the place. So the men sat down, in number about five thousand. And Jesus took the loaves, and when He had given thanks He distributed them to the disciples, and the disciples to those sitting down; and likewise of the fish, as much as they wanted. So when they were filled, He said to His disciples, "Gather up the fragments that remain, so that nothing is lost." Therefore they gathered them up, and filled twelve baskets with the fragments of the five barley loaves which were left over by those who had eaten. Then those men, when they had seen the sign that Jesus did, said, "This is truly the Prophet who is to come into the world."(John 6:1-14)

1. The Supernatural Perspective of Faith

He said to Philip, "Where shall we buy bread, that these may eat?" .... Philip answered Him, "Two hundred denarii worth of bread is not sufficient for them,..." One of His disciples, Andrew, Simon Peter's brother, said to Him, "There is a lad here who has five barley loaves and two small fish, but what are they among so many?" Then Jesus said, "Make the people sit down."

The disciples had a natural and rational perspective; but, Jesus had a supernatural perspective. What reason sees as naturally impossible, faith sees as supernaturally possible.

2. The Spoken Word of Faith

Then Jesus said, "Make the people sit down."

The disciples were speaking negative words of fear. Jesus spoke the positive words of divine confidence.

3. The Specific Act of Faith

And Jesus took the loaves, and when He had given thanks He distributed them to the disciples, and the disciples to those sitting down; and likewise of the fish, as much as they wanted.

Jesus did not just speak faith, He acted according to it. Faith without works is dead. Do what you believe God can do through you!

4. The Sumless Power of Faith

So when they were filled, He said to His disciples, "Gather up the fragments that remain, so that nothing is lost." Therefore they gathered them up, and filled twelve baskets with the fragments of the five barley loaves which were left over by those who had eaten.

There is nothing impossible for Jesus and nothing impossible for those who believe in Jesus, i.e. those who walk according to His will.

Believe in Jesus and experience His miraculous power in your life right now!

Friday, August 6, 2010

The Person of Christ (Masih ka Vyakti)

निकिया के संघोष्टि (345 ईसवी) में अरियस के गलत शिक्षाओं के विरोध में यह धर्मवैज्ञानिक कथन पर मुहर लगा:
परमेश्‍वर पुत्र प्रभु यीशु मसीह त्रिएक परमेश्‍वर के हर व्‍यक्ति के साथ

1. सहशास्‍वत
2. सहस्‍वरूप - सहतात्विक
3. सहसमान है।
अर्थात कोई किसी से निम्‍न या उच्‍च नहीं।

खलसिदोन की संघोष्टि (451 ईसवी) में पादरियों की बैठक ने मसीह के ईश्‍वरीय एवं मानवीय स्‍वभाव के विषय में यह बयान जारी किया: मसीह का ईश्‍वरीय और मानवीय स्‍वभाव

1. अमिश्रित
2. अपरिवर्तनीय
3. अखण्‍ड
4. अविभाजनीय हैं।


वह संपूर्णत: ईश्‍वर एवं संपूर्णत: मनुष्‍य हैा उसके देहधारण में न तो दैवीय स्‍वभाव में परिवर्तन हुआ न तो मानवीय स्‍वभाव में कोई परिवर्तन हुआ।

Wednesday, August 4, 2010

3 Offices of Christ (Masih ke Teen Paden)


मसीह के तीन पदें


1. भविष्यवक्ता
मरकुस 6:15; यूहन्ना 4:19; 6:17
वह यशयाह या यर्मयाह समान और एक दूसरा भविष्‍यवक्ता नही।
अ. वह भविष्यावाणी का सार है।
‘यीशु की गवाही भविष्यद्वाणी की आत्मा है’ (प्रकाशितवाक्य 19:10)।
आ. वह भविष्यीवाणी का स्रोत है। ‘उन्हों ने इस बात की खोज की कि मसीह का आत्मा जो उन में था, और पहिले ही से मसीह के दुखों की और उन के बाद होनेवाली महिमा की गवाही देता था, वह कौन से और कैसे समय की ओर संकेत करता था’ (1पतरस 1:11)।

2. याजक
इब्रानियों 2:14-16; 8:3

याजक मनुष्य की ओर से परमेश्वर से भेंट करता हैं। भविष्यवक्ता परमेश्वर की ओर से मनुष्य से बातें करता हैं।
अ. वह मनुष्य बना।
मनुष्य के लिए परम प्रधान परमेश्‍वर का याजक बनने के लिए उसे मनुष्य बनना पड़ा (इब्रानियों 2:14-16)।
आ. वह मध्यस्त बना।
वह हमारे लिए निरन्तएर मध्येस्ति करता हैं (रोमियों 8:34; इब्रानियों 7:25)।

3. राजा
भजन 110:1-4; जकर्याह 6:13
अ. वह प्रभु है। (फिलिप्प्यिों 2:10)
स्वामी, पालनहारा, रक्षक, तारणहारा
आ. वह न्यायी है। (रोमियों 2:16; 2तिमोथि 4:1)

Tuesday, July 20, 2010

Aham Se Uddhar - अहं से उद्धार

रविवार, जुलाई 11, 2010. पेंटिकॉस्‍टल चर्च, इटारसी
वक्‍ता: डॉ. डॉमिनिक मारबनियंग


''कुरियन थॉमस के चार दुश्‍मन हैं: संसार, शरीर, शैतान, और कुरियन थॉमस। आखिरी दुश्‍मन सब से खतरनाक हैं।'' -डॉ कुरियन थॉमस

कहा जाता है कि लंदन के टाईम मैगज़ीन ने एक बार ''संसार के साथ क्‍या समस्‍या है'' विषय पर कुछ लेख प्रकाशित किये थे। सब से लघु उत्‍तर विख्‍यात लेखक चेस्‍टरटन ने भेजा, और वह इस प्रकार था:


आदर्णीय सम्‍पादक महोदय,
आपके प्रश्‍न के संबंध में कि ''संसार के साथ क्‍या समस्‍या है'',

मै हुँ,

आपका
जी.के. चेस्‍टरटन

एक पादरी साहब रविवार सुबह के लिए संदेश बनाने में व्‍यस्‍त थे। तभी उनका बेटा आकर जिदद् करने लग गया कि ''आओ, पापा, मेरे साथ खेलो''। परेशान हो पिताजी ने एक विश्‍व के मानचित्र को 10 टुकडों में फाड़ कर बेटे को दिया और कहा कि ''जाओ इसे सही कर के लाओं।'' वे सोच रहे थे कि इस से बेटा व्‍यस्‍त हो जाएगा और उनको तैयारी का समय मिल जाएगा। लेकिन बेटा थोडी ही देर में लौट गया, और वह मानचित्र भी सही कर लाया था। चकित हो जब पिता ने पूछा किे वह इतना जलदी इसे कैसे ठीक कर दिया, तो बेटे ने उत्‍तर दिया ''सरल था: जब आप नक्‍शा फाड़ रहे थे तो मैने देखा कि पीछे एक मनुष्‍य का चित्र है। बस, मै समझ गया कि यदी मनुष्‍य को ठीक कर दिया जाए तो दुनिया भी ठीक हो जाएगा। सो, मैने मनुष्‍य को ठीक कर दिया तो दुनिया का नक्‍शा भी ठीक हो गया।''
पादरी साहब को अगले दिन के लिए संदेश मिल गया था।


मनुष्‍य ही समस्‍या है और वह अपना स्‍वयं का सबसे घातक शत्रु हैं।

मनुष्‍य स्‍वयं अपना ही इतना बडा शत्रु क्‍यों है ? आईए देखें:

1.क्‍योंकि वह पाप के हाथ बिका हुआ हैं। (रोम 7:14) – पाप उसका स्‍वामी है। वह जो चाहता है उसे नही कर पाता है, परन्‍तु जो नही चाहता है उसे ही कर बैठता है।
2.क्‍योंकि उस में कोई भी भली बात नही है। (रोम.7:18)– शिक्षा शायद मनुष्‍य को सभ्‍यता का वस्‍त्र पहना सकती है, परन्‍तु उसके स्‍वभाव को बदल नहीं सकती है।
एक क्‍वाज़ी के पास उसका मित्र अपनी समस्‍या बता रहा था। उसका बेटा बडा ही अनाज्ञाकारी था। क्‍वाज़ी ने सलाह दिया कि बेटे को अच्‍छी शिक्षा दी जाए। उसने अपनी ही बिल्‍ली का उदाहरण देते कहा कि ''देखो इसे, यदी इसे प्रशिक्षण नही दिए होते तो क्‍या यह ऐसा खामोश और शान्‍त बैठा रहता? हमने इसे हमारी आदेशों का पालन करना सिखाया।'' इस बुद्धिमानी के शाब्‍दों को सुनकर मित्र वापस लौटा। फिर कुछ वर्षों के बाद वह लौटा, तो क्‍वाज़ी ने बेटे का हाल पूछा। मित्र ने अपने साथा लाए एक छोटे से बक्‍से को खोल दिया, और तुरन्‍त उसमें से एक चूंहा छलांग लगाकर बाहर निकला। इसे देखकर बिल्‍ली से रहा नही गया। वह भी छलांग लगायी और उसके पीछे दौडने लगी। मित्र ने कहा ''क्‍यों, शिाक्षा तो सभ्‍य बनाती है, पर स्‍वभाव तो वैसे का वैसा ही है।'' कया इसमें कोई संदेह है कि संसार के शिक्षित वर्ग पाप और लालच से अछूता? हम इस बात को भली भांति जानते है। बिना ईश्‍वर की सहायता के कौन व्‍यक्ति
3.क्‍योंकि वह शारिरिक हैं और शरीर के कायों का गुलाम हैं (रोम.7:5)
4.कयोंकि उसका मन परमेश्‍वर का शत्रु हैं और वह परमेश्‍वर की व्‍यवस्‍था का आधीन नही हो सकता। (रोम.8:7)
5. क्‍योंकि वह अपने ही विरुद्ध में जंग करता हैं। (याकूब 4:1, 1पत. 2:11)
6.क्‍योकि वह अपने ही आप को समझने में गलती करता हैं और अहंकार या निराशा से अपने आप को घायल कर देता है। (यशयाह .14:12 में शैतान की यही समस्‍या थी- वह अहंकार से ग्रसित था।
7. क्‍योंकि वह मूर्खता और बावलापन से भरा हुआ है। (सभोपदेशक 9:3)
8.क्‍योकि उसका मन धोखा देने वाला मन है। (यर्म.17:9). वह मुझे गलत बातों को सही सोचने का भ्रम में डालता हैं।. ग्‍लास में नाचते लाल शराब मुझे विष के बदले प्रमोद प्रतीत होता है।.
9.क्‍योंकि उसका विवेक दूषित हो गया हैं और भलाई और बुराई मे सही फ़र्क नही बता पाता (तीतुस 1:15)
10.क्‍योंकि वह अपने आप से भाग नहीं पाता। आप जहा क‍ही जाएं आप अपने आप को वही पातें हैं। एक बालक अपने परछाई से भागता हुआ अपनी मां के पास गया और कहने लगा ''देखों न मां, यह पीछे पीछे आता है।'' क्‍या कोई अपनी ही परछाई से भाग सक है।
11.क्‍योंकि वह अपना ही विरोध करता है और एक विरोधक और असंगत जीवन शैली उत्‍पन्‍न करता है। (प्रेरित 18:6, तिम.2:25, KJV)


2 गलत मार्गें जिससे समस्‍या और जटिल हो जाती है:

1.बढ़प्‍पन: शक्ति, रुपैया, शान और शौकत, या धार्मिक प्रभाव की चेष्‍टा
2.बचावपन: नशीली पदार्थों की सेवन, गलत यौन सम्‍बंध, पार्टियां, शराब इत्‍यादी अपने आप से बचने के मार्ग

समस्‍या का समाधान केवल यीशु मसीह ही है।अपने देहधारण में उसने अपने आप को शून्‍य कर हमारे उद्धार के लिए मानव रूप धारण किया।
क्रूस पर पापों के बदले बलिदान देकर उसने हमें हमारी पापमय अवस्‍था से बचने का मार्ग तैयार किया।
मृतकों में से जी उठकर उसने हमें नया जीवन जीने का सामर्थ उपलब्‍ध कराया। सो जो मसीह में हैं वे नई सृष्टि हैं और उसके पुनुरुत्‍थान का सामर्थ उनमें विश्‍वास के द्वारा काम करता है।

जिस दशा में हम है, उसी दशा में वह हमसे प्‍यार करता है
जिस दशा में हम है, उसी दशा में वह हमें अपने पास बुलाता है।

Thursday, July 15, 2010

4 Guards Over Life -जीवन के चार पहरें – (Proverbs 4:20-27)

Forthcoming in Satyadoot Magazine, Itarsi, August 2010

संसार में मनुष्य हर बहुमूल्यक बात की सुरक्षा का उपाय करता है। घर के अलमारियॉ, संदूकें, दरवाजें, एवं खिडकियॉ तालों के तले सुरक्षित पाएं जाते ही हैं, साथ ही साथ कुछ लोग अधिक सुरक्षा के लिए पहरेदारों को भी नियुक्त कर देते हैं, क्योंकि हर व्यसक्ति जानता है कि इस संसार में उसकी सुरक्षा की जिम्मेीदारी प्रथमत: उसी पर ही हैं, और यह संसार एक दुष्टक लोक है। लेकिन भौतिक वस्तुतओं से भी अधिक मूल्यंवान मनुष्या के कुछ ऐसी बातें हैं जिनकी सुरक्षा करने में यदी वह विफल हो जाएं तो वह सब कुछ खो देता हैं। इसीलिए पवित्रशास्त्रि हमे चिताता है:

हे मेरे पुत्र मेरे वचन ध्यान धरके सुन, और अपना कान मेरी बातों पर लगा। इनको अपनी आंखों की ओट न होने दे? वरन अपके मन में धारण कर। क्योंकि जिनकों वे प्राप्त होती हैं, वे उनके जीवित रहने का, और उनके सारे शरीर के चंगे रहने का कारण होती हैं। सब से अधिक अपने मन की रक्षा कर? क्योंकि जीवन का मूल स्रोत वही है। टेढ़ी बात अपके मुंह से मत बोल, और चालबाजी की बातें कहना तुझ से दूर रहे। तेरी आंखें साम्हने ही की ओर लगी रहें, और तेरी पलकें आगे की ओर खुली रहें। अपने पांव धरने के लिये मार्ग को समथर कर, और तेरे सब मार्ग ठीक रहें। न तो दहिनी ओर मुढ़ना, और न बाईं ओर? अपने पांव को बुराई के मार्ग पर चलने से हटा ले।।(नीतिवचन 4:20-27)

इस वचन-पाठ में हम जीवन के उन चार महान पहरुओं को देखते हैं जिससे मनुष्यत मनुष्योंत और परमेश्वकर के सन्मुनख में जाना जाता है। वे चार अंग है: हृदय, मुंह, आंखें, एवं पांव। इन चारों की चौकसी का जिम्मार व्यढ़क्तिगत तौर पर हमारा ही है।

हृदय का पहरा

हृदय या मन के विषय में बताया गया है कि सब से अधिक इसी की रक्षा हमें करना हैं, क्योंकि जीवन का मूल स्रोत वही है। दूसरे शब्दों में मनुष्यब का सब से महत्व पूर्ण अंग उस का हृदय ही है। इसके कई कारण हैं। पहले तो, हृदय की स्थिति ही मनुष्यय की स्थिति को निर्धारित करती हैं। इसलिए, नीतिवचन 12:25 कहता है किे उदास मन दब जाता है या एक व्यिक्ति को निरुत्सा हित एवं कर्महीन कर देता है, लेकिन अच्छास खबर सुनते ही वह आनंदित हो जाता है। उसी प्रकार, मनुष्यक जिस बात की आशा लगाए बैठा है, उस बात का पूरा होने में जब विलम्ब होता है तो वह शिथिल और पत्थरर समान बन जाता है, लेकिन उस आशा के पूरे होने पर ऐसा मानों उसके जी में जान आ गया हो (नीतिवचन 13:12)। फिर, हृदय ही वह अंदुरूणी कक्ष है जहा पर मनुष्यब का चरित्र का निर्माण होता है। यीशु मसीह ने कहा कि भला मनुष्य अपने मन के भले भण्डायर से भली बातें निकालता है, और बुरा मनुष्य अपने मन के बुरे भण्डा र से बुरी बातें निकालता है? क्योंकि जो मन में भरा है वही उसके मुंह पर आता है'' (लूका 6:45)। हम अपने हृदय में जिन विचारों और कार्यों को पनपने देते हैं, वे ही हमारे जीवन के निर्धारक बन जाते हैं। जब मनुष्य। असावधान होकर बुराई को अपने हृदय में जड पकडने दे देता है तो उसके हृदय से "बुरी बुरी चिन्ता, व्यभिचार...चोरी, हत्या, परस्त्रीगमन, लोभ, दुष्टरता, छल, लुचपन, कुदृष्टिज, निन्दा, अभिमान, और मूर्खता ... निकलती हैं और मनुष्य को अशुद्ध करती हैं’’ (मरकुस 7:21;23)। लेकिन जो पवित्र बाइबिल के वचनों को दिल पर राज्यर करने देता है, उसके जीवन में प्रेम, आनन्दत, मेल, धीरज, कृपा, भलाई, विश्वा स, नम्रता, और संयम नामक आत्मा का फल लग कर उसे आत्मिक और चरित्रमान बना देती है। नीतिवचन 4:21 में कहा गया है कि हमें वचनों को प्रति‍दिन धारण करना हैं। अंग्रजी का एक अनुवाद में कहा गया है कि हमें इसे दिल के मध्या में या केंद्र बिंदु पर रखना है। जब हम परमेश्वैर के वचन को अपने हृदय के मध्य में रख देते हैं तो वह हमारे सम्पूयर्ण्‍ जीवन को नियंत्रित कर हमें उन सारे वेदनाओं और दुखों से बचाता हैं जो पाप के कडवे जड से उपजते हैं।

मुंह का पहरा

याकूब 3:2 के अनुसार जो अपने जीभ पर काबू कर लेता है, वह अपने सारे शरीर पर नियं‍त्रण पा लेता हैं। जब हम जीभ को यूं ही फिसलने दे देते है, और जो मुंह आए उसे ही कह देते है तो हम अनियंत्रित और मूर्ख बन जाते हैं, क्योंनकि वचनों से मनुष्यर की बुद्धि जानी जाती है। हमारे वचन सच्चे और लाभदायक होने चाहिए। याकूब कहता है कि हमें अपने जुबान पर लगाम बांध देनी चाहिए, अर्थात हमें उसे इधर उधर भटकने से बचाना चाहिए, हमें उसे सही दिशा और निशाने पर बनाए रखना चाहिए। जिसके हृदय में ईश्वार के वचनों का मनन होता है, उसके जीभ पर ईश्वअर के कामों की प्रशंसा, स्तुअति, विश्वा स का अंगीकार, खराई, एवं सच्चाजई के वचन ही रहते हैं। जो ईश्ववर के बातों पर मन नही लगाता है, उसके वचनों में असंतुष्टि, कडुवाहट, निंदा, हिंसा, और हानी ही व्य।क्तअ होते हैं। एक गलत शब्द जीवन और गवाही को नष्टअ कर सकता हैं। वैसे एक जीवनदायक वचन किसी उजडे जीवन को बना भी सकता हैं।

आंखों का पहरा

आंखों के विषय में यह पाठ भाग हमें दो बातें बताती है: हमारी आंखें साम्हने ही की ओर लगी रहें, और हमारी पलकें आगे की ओर खुली रहें। साम्हाने ही की ओर लगाये रखने का अर्थ है कि हमें आगे के तरफ ही बढता चले जाना चाहिए, किसी भी मोड पे पीछे न मुडे। क्या कोई व्यंक्ति पीछे की ओर देख कर साम्हनने दौड सकता है, या नीचे की ओर देखकर पहाड की चोटी पर पहुंच सकता है? यदी हम अपने अतीत से अभी भी झूंझ रहे है तो हम कभी आगे नही बढ सकते। पौलुस कहता है कि वह पिछली बातों को भूल कर आगे की ओर बढता चला जाता है (फिलि 3:13)। यदी हम अतीत की ओर अपनी आंखें लगा देते है तो हम उसके चपेट में फंस जाते है। परमेश्वतर हमें प्रति दिन एक नई सुबह देता है ताकि हम उन पुरानी पाप की बातों से बहुत दूर निकलते चले जाएं। प्रभु में जितना हम आगे बढते जाते है, उतना ही हम पाप से दूर होते जाते है। लेकिन यदि कोई जाल हमें आज भी फंसाए रखा हैं, तो जान जाएं की परमेश्व र हमें उसमे से छुडाने का सामर्थ रखता है। तो क्योंज न हम इस छुटकारे के सौभाग्यि और आाशीष में अपने दिन बढाते जाएं। केवल इतना करना है: विश्वाैस से ठान लें कि आप पुरानी बातों को त्यािग कर यीशु मसीह द्वारा दिया गया नया जीवन को धारण कर लेंगे।

हमारे पलक झपकने न पाएं, क्योंगकि शत्रु शैतान इस ताक में रहता है कि कही हमारा ध्यालन हटे और वह हमें निगल ले जाएं। हमें सदा सतर्क रहना चाहिए। हमें बुद्धिमान व्य क्ति के समान संसार में बडी सचेत्ताध के साथ दिन गुजारना है (इफि 5:14-16)। हम सांसारिक लालच की बातों की तरफ नही परंतु परमेश्वदर के पवित्र बुलाहट पर अपना ध्या(न लगाए रखें। और स्मनरण रखें की आंखों की ज्योकती परमेश्व र का वचन है (मत्ति 6:22,23; भजन 119:130)। इसलिए उसके वचन रूपी दिये को हमेशा अपने निकट रखें, ऐसा न हो किे हम इस अंधकार के लोक में अचानक अपने आप को बेसहारा और लक्ष्यउहीन या दिशाहीन पा जाएं; हमें उसके वचन को हमारी स्‍मृती के उच्चअतम सिरे पर रखना चाहिए (2‍पत 1:19)।

पावों का पहरा

अपने पावों का पहरा रखना हमारा चाल चलन, संगति, एवं प्रगति की चौकसी को दर्शाती है।

संसार में कई गलत शिक्षाएं एवं प्रलोभन हैं जो हमारे पावों तले जमीन को खिसका सकते हैं। लेकिन जो प्रभु के विश्वामस एवं बल पे खडा रहता है, वह कभी हिलने वाला नही (इफि 4:14;16)। बाइबिल हमारा मार्गदर्शक एवं नक्षा बन जाएं; वही हमारे पावों के लिए दीपक और मार्गों के लिए उजियाला बने। हमारा व्य वहार, वाक, एवं व्यषक्त्तिव ईश्वहर की इच्छाप अनुरूप ही रहे।

कभी गलती से भी गलत और बुराई को फैलाने वालों की संगति में अपने पांव जानें न दें। बुरी संगति का बुरा ही प्रभाव होता है। बलकि बुराई से दूर जो भागता है, वह अपना प्राण बचा लेता है (नीति 1:15)। फिर यह भी आवश्यवक है कि बुरी शिक्षा या प्रभाव फैलाने वालों के पॅर अपने घर पर पडने न पाएं (2यूहन्ना1:10,11)।

यदि हम इन महत्वहपूर्ण अंगों की सुरक्षा एवं चौकसी करने में सफल रहें, तो ईश्वपर की ही मदद से हम प्रगति, प्रभाव, और प्रतिफल का अनुभव पाने वालों में होंगे।

डॉमेनिक मरबनयंग, जुलाई 2010

© Domenic Marbaniang, July 2010

Saturday, January 30, 2010

नववर्ष में निर्भय प्रवेश – New Year Message

© Dr. Matthew K. Thomas, 2010

President of Central India Theological Seminary, Executive Board Member of Pentecostal World Felloship, Chairman of the Fellowship of Pentecostal Churches in India

© डॉ. मैथ्‍यू के. थॉमस, 2010


नए वर्ष के प्रारंभ ही में हमने ऐसे त्रासदी भरी घटनाओं के बारे में सुन लिया है, जिससे संसार आज भय के चपेट में आ गया हैं। हाल ही में एक भयानक भूकम्‍प ने हायती देश की राजधानी में ही एक लाख से अधिक लोगों की एक ही दिन में  जान ले ली। फिर कोई आतंकवादी संघटन का मुखिया ने कल ऐलान कर दिया कि उसके पास इतना परमाणु शक्ति है कि वह सारे विश्‍व को पंद्राह मिनटों में नाश कर सकता है। संसार स्‍वयं मौत एवं आतंक का ऐसा खतरनाक समुद्र बन चुका है जिसमें जीवन और भविष्‍य हर वक्‍त समाप्ति के कगार पर ही पाए जाते हैं। ऐसे परिस्थितियों में परमेश्‍वर का वचन हमारे लिए दैवीय सच्‍चाई का वह सीख देता है जो हमें भय के बंधन से मुक्‍त कर ईश्‍वरीय भलाई और करूणा के साथ हमें इस नववर्ष में प्रवेश दिलाता है।

इब्रानियों 13:5,6,8 के अनुसार:

'जो तुम्हारे पास है, उसी पर संतोष किया करो; क्‍योंकि उस ने आप ही कहा है, कि मैं तुझे कभी न छोडूंगा, और न कभी तुझे त्यागूंगा।  इसलिथे हम बेधड़क होकर कहते हैं, कि प्रभु, मेरा सहाथक है; मैं न डरूंगा; मनुष्य मेरा क्‍या कर सकता है.... यीशु मसीह कल और आज और युगानुयुग एकसा है।'

भय पॉच क्रियाओं के द्वारा मनुष्‍य को ईश्‍वरीय विजय से अलग करता है:
1. भय हमारे सोच-विचार को अनरूप एवं विकृत कर देता है।
2. भय संतों के मन को अनुत्‍साहित कर देता है।
3. भय हमारे लिए ईश्‍वर की सुयोजना को अनदेखी कर देता है।
4. भय ईश्वर के संदेश एवं प्रतिज्ञाओं पर अविश्‍वास जताता है।
5. भय दैवीय सिद्धांत के प्रति अनाज्ञारिता दर्शाता है।

इस नव वर्ष में निर्भय प्रवेश हेतु इब्रानियों 13:5,6,8 में हम चार शक्ति मूल्‍यों को देख सकते है।
1. उसके प्रबंधन की संतुष्टि
2. उसकी उपस्थिति की सहभागिता
3. उसके प्रतिज्ञाओं का आश्‍वासन
4. उसकी सुरक्षा की सांत्‍वना

1.  उसके प्रबंधन की संतुष्टि। वचन कहता है: ''जो तुम्हारे पास है, उसी पर संतोष किया करो।' हमारा पिता परमेश्‍वर हमारे लिए सब भ‍‍ली वस्‍तुओं का प्रबंध किया है। परन्‍तु मनुष्‍य जब असं‍तुष्टि की चपेट में आ जाता है तो इसे समझ नही पाता। संतुष्टि के चार महान शत्रु है: चिंता, अविश्‍वास, अकेलापन, एवं लालच या लोभ। 2पतरस 1:3 के अनुसार जीवन एवं भक्ति के लिए जो भी बातें आवश्‍यक हैं उनहे परमेश्‍वर ने हमे दे दिया है। हमें बरकतों को स्‍मरण रखकर एक धन्‍यवादी हृदय के साथ आनंदमय जीवन को व्‍यतीत करना है। यह सं‍तुष्टि एवं आनंद परिस्थितियों पर आधारित नहीं परंतु परमेश्‍वर के साथ हमारे सम्‍बंध का प्रमाण है। भजनकार कहता है कि वह हर दिन हमें भली वस्‍तुओं से तृप्‍त करता है। जब चारों तरफ आर्थिक अव्‍यवस्‍ता फैल रही है और बेरोजगारी एवं गरीबी मनुष्‍य को प्रताडित कर रही है तो परमेश्‍वर का वचन हमें स्‍मरण दिलाता है कि हमारे पिता ने हमारे लिए सभी बातों का प्रबंध कर दिया है। मुझे मेरे जीवन के वे दिन स्‍म्‍रण है जब मुझे होशंगबाद किसी कार्यक्रम के लिए जाना था और हमारे घर में बस के टिकट खरीदने के लिए भी पैसे नही थे। मैने इसे कोई कमजोरी नही समझा; हम साईकिल से वहा तक गए। एक समय था जब हमें रोज नहाने के लिए रैलवे स्‍टेशन जाना पडता था। लेकिन ऐसी अवस्‍था में असंतुष्टि हम पर प्रबल नही हो पाई क्‍योंकि हम अपने पिता परमेश्‍वर के प्रबंध को जानते थे। समय पर वह अपने खजाने में से एक एक आशीष हमारे जीवन में लाता गया। आज भी हम उतने ही आनंदित है जितना उस समय थे, क्‍योंकि हम अपने प्रबंध करने वाले पिता को भली भांति जानते है।

1 थेस्‍सलोनिकियों 5:16,17,18 हमें यह सिखाता कि एक धन्‍यवाद से भरा हुआ हृदय परमेश्‍वर की इच्‍छा को पूरा करता है। परमेश्‍वर चाहता है कि हम हमेशा आनंदित, धन्‍यवादित, एवं प्रार्थना करते रहें। भजन 34:10 कहता है: जवान सिंहों को तो घटी होती और वे भूखे भी रह जाते हैं; परन्तु यहोवा के खोजियोंको किसी भली वस्तु की घटी न होवेगी। हाल ही में हमारे फैलोशिप को सहायता भेजने वाले चार महान दानियों ने हमें लिखा कि वे हमें सहायता नहीं भेज सकते है। लेकिन हम जानते है कि जब कोई दर्वाजा बंद होता है तो ईश्‍वर दूसरा दर्वाजा खोलने के लिए तैयार रहता है क्‍योंकि उसके प्रबंधन ही से यह संसार और यह सेवकाई भी चलती है। इसलिए हमें किसी बात का भय नहीं। हम इस नए वर्ष में निर्भयता के साथ, हृदय में एक दैवीय संतुष्टि को लेकर प्रवेश कर रहे हैं, और हम चाहते है कि आप भी ईश्‍वरीय भलाई को स्‍मरण रखते हुए बडे आनंद, विश्‍वास, और अपेक्षा के साथ इस नव वर्ष में प्रवेश करें।

2.  उसकी उपस्थिति की सहभागिता। परमेश्‍वर का वचन कहता है, 'मैं तुझे कभी न छोडूंगा, और न कभी तुझे त्यागूंगा।' प्रभु यीशु मसीह के द्वारा हम जिस दैवीय रिश्‍ते एवं संगति में प्रवेश कराये गये है वह कभी टूटने वाली नही है (1यूहन्‍ना 1:3)। बाईबल बताती है कि एक दुध पिलाती मां अपने बच्‍चे को त्‍याग सकती है, परन्‍तु परमेश्‍वर हमें कभी नहीं त्‍यागता। निश्‍चय इसमें कोई संदेह नहीं की मनुष्‍य अपने मन का अनुकरण कर पथभ्रष्‍ट हो जाता है, परन्‍तु परमेश्‍वर की उपस्थिति हमारे साथ कायम रहती। दुख की बात तो यह है कि कई लोग इस बात को समझ नहीं पाते और इस कारण से ईश्‍वर उनके निकट होने पर भी वे उसकी संगति में प्रवेश नहीं कर पाते है, न उसमें सहभागी हो पाते हैं। लेकिन उसके उपस्थिति का ज्ञान एवं एहसास भर भय को दूर कर देता है, इसलिए भजनकार कहता है, 'तेरे निकट आनन्द की भरपूरी है, तेरे दहिने हाथ में सुख सर्वदा बना रहता है' (भजन 16:11)। जब मित्र एवं बन्‍धु हमें त्‍याग देते है, तभी भी हम जानते है कि वह हमारे संग रहता है। जब परिस्थितियां विपरीत हो जाती है तब भी वह हमारे साथ रहता है। वचन यह भी कहता है कि जो हमें छूता है उसकी आंखों की पुतली को छूता है। तो फिर हमें किस बात का डर। संसार के विभिन्‍न महान परेशानियों में दो महान समस्‍याएं आज अकेलापन एवं उबाउपन है। इसमें कोई संदेह नहीं कि इनहे दूर करने के प्रयास में मनुष्‍य असंगत परिस्थ्‍िातियों में अपने आप को फसा लेता है। इस कारण से जीवन भी अनर्थ, आशा‍रहित, अननुमेय, एवं अशांत सा हो जाता है। परंतु जिस प्रकार संत अगस्‍तीन ने कहा था, जब हम ईशवर के पास आते है तो यह बेचैन दिल चैन पा लेता है। परमेश्‍वर कहता है कि 'परमेश्वर के निकट आओ, तो वह भी तुम्हारे निकट आएगा' (याकूब 4:8)। यद्यपि वह हम में से किसी से भी दूर नही (प्ररित 17:27) फिर भी यह सहभागिता हमारे सहभागिता के बिना सम्‍भव नहीं हो सकता। उसके निकट बने रहें और भय और चिंता का ह्रास हो जाएगा। आज हम भजनकार आसाफ के साथ यह कहने पायें: 'परमेश्वर के समीप रहना, यही मेरे लिथे भला है' (भजन 73:28)।


3.  उसके प्रतिज्ञाओं का आश्‍वासन। परमेश्‍वर की उपस्थिति एवं सहायता की प्रतिज्ञाएं हमें दृढ़ आशा प्रदान करती है। हम इस नए वर्ष में इन प्रतिज्ञाओं को लेते हुए बडे हर्ष एवं अपेक्षा के साथ प्रवेश करें क्‍योंकि परमेश्‍वर हमारे जीवन में अपनी भलाई एवं पराक्रम को बहुतायत से प्रगट करेगा। हम वचन के अनुसार परमेश्‍वर के भुजबल पर आशा रखने वाले हो जाएं (यशायह 51:5)। इस संसार में जीते हुए हम कई अभक्‍त एवं अधर्मी बातों का सामना करते है, परन्‍तु परमेश्‍वर ने 'बहुमूल्य और बहुत ही बड़ी प्रतिज्ञाएं दी हैं: ताकि इन के द्वारा तुम उस सड़ाहट से छूटकर जो संसार में बुरी अभिलाषाओं से होती है, ईश्वरीय स्‍वभाव के समभागी हो जाओ' (2पतरस 1:4)। क्‍या कोई जवान इस बात से भयभीत है कि वह इस वर्ष प्रभु में स्थिर रह पायेगा या नही, तो आप परमेश्‍वर के प्रतिज्ञाओं को अपने सीने से लगाकर ऐलान कर दें कि आप अपना चाल चलन को शुद्ध रख पायेंगे क्‍योकि आप परमेश्‍वर के वचन से सावधानी का पाठ लेते है (भजन 119: 9)। जब आप विभिन्‍न प्रकार के परीक्षाओं में अपने आप को पाते है तो स्‍मरण रखें कि परमेश्‍वर आप के लिए एक निकलने का मार्ग भी बनाता है ताकि आप अंत तक धीरज रखें (1कुरूत्थियों 10:13)। परमेश्‍वर ने लिखित वचन में हमें बुद्धि, भरपूरी, जय, सहायता, एवं शांति का वायदा किया है। आये इस नए वर्ष में हम उनहें प्राप्‍त करने की चेषटा के साथ प्रवेश करें। और परमेश्‍वर की इच्‍छा को  स्‍मरण रखें: 'हम बहुत चाहते हैं, कि तुम में से हर एक जन अन्‍त तक पूरी आशा के लिथे ऐसा ही प्रयत्‍न करता रहे। ताकि तुम आलसी न हो जाओ? बरन उन का अनुकरण करो, जो विश्वास और धीरज के द्वारा प्रतिज्ञाओं के वारिस होते हैं' (इब्रानियों 6:11,12)। इसलिए आइए हम विश्‍वास एवं धीरज से कमर कस कर बडे उम्‍मीद और आश्‍वासन के साथ इस नए वर्ष में प्रवेश करें। यदी कोई सोचता है कि ऐसे अनुभव केवल बाईबल के समयों में ही संभव थे, तो याद रखे कि वचन हमे फिर स्‍मरण दिलाता है कि यीशु मसीह कल, आज, और युगानुयुग एक सा है। जैसा वह नबदल है, वैसे ही उसकी प्रतिज्ञाएं भी चिरस्‍थायी है।

4.  उसकी सुरक्षा की सांत्‍वना। आज के संसार में सुरक्षिता के कई उपाय है जो इंजीनियरिंग के तकनीकों एवं औषधि विज्ञान के कक्ष से चल कर आर्थिक संरक्षण की दुनिया तक विद्यमान है। लेकिन चाहे इं‍जीनियर आपके मकान को, आपके गाडी को, रोज के यातायात वाहनों को, या अन्‍य यंत्रों को कितना ही सुरक्षित क्‍यों न कर दें; या आप बीमा इत्‍यादी द्वारा भविष्‍य को सुरक्षित करने का कितना भी प्रयास कर लें; फिर भी यदी परमेश्‍वर की सुरक्षा का कवछ हमे न घेरे तो ये सारी बाते व्‍यर्थ ही है। भजन 3,4, एवं 5 अध्‍यायों के अंतिम पदों को स्‍मरण रखें। वे कहते है:


'उद्धार यहोवा ही की ओर से होता है' (भजन 3:8)
'मैं शान्ति से लेट जाऊंगा और सो जाऊंगा? क्योंकि, हे यहोवा, केवल तू ही मुझ को एकान्त में निश्चिन्त रहने देता है।' (भजन 4:8)
'तू धर्मी को आशिष देगा। हे यहोवा, तू उसको अपके अनुग्रहरूपी ढाल से घेरे रहेगा।' (भजन 5:12)

परमेश्‍वर का अनुग्रह हमारी ऐसा ढ़ाल है जिसे संसार की कोई भी शक्ति भेद नही सकती। इस कारण से भजनकार कहता है कि वह शात्ति से लेट कर सो जाएगा क्‍योंकि यहोवा ही उसे एकान्‍त में निश्चिन्‍त रहने देता है। वचन कहता है कि 'परमेश्वर ने हमें भय की नहीं पर सामर्य, और प्रेम, और संयम की आत्मा दी है' (2तिमोथियुस 1:7)।
परमेश्‍वर के लोगों के जीवन में असंगत भय होने की आवश्‍यक्‍ता नहीं क्‍योंकि उनका जीवन परमेश्‍वर ही के हाथ में है और उसके मर्जी के बगैर हमारे सिर का एक भी बाल बांका नही हो सकता (लूका 21:18)। क्‍या कोई भी संसार की कम्‍पनी हमें इतने सुरक्षा का कवरेज दे सकती है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं की हम मूर्खता एवं अहंकार का रूख अपना कर संगत भय को भी नजर अंदाज कर दें। उदाहरण के लिए, इसका मतलब ये नहीं होता कि आप आग में हाथ डाल कर अपनी निर्भयता को प्रदर्शित करने की कोशीश करें। याद रखें कि शैतान ने भी बाइबल के वचनों का गलत उपयोग कर यीशु मसीह को मंदिर पर से नीचे कूदने के लिए प्रोतसाहित करने कि कोशीश किया, परंतु प्रभु ने उसे यह कहते हुए सामना किया कि लिखा गया है कि तू अपने प्रभू परमेश्‍वर की परीक्षा न लेना। ईश्‍वरीय सुरक्षा अनुग्रहरूपी है, और अनुग्रह केवल उसी पर होता है जो नम्रता से प्रभु के नियमों का आ‍धीन हो (याकूब 4:6)।

सो आईये हम परमेश्‍वर के प्रबंधन की संतुष्टि, उसकी उपस्थिति की सहभागिता, उसके प्रतिज्ञाओं का आश्‍वासन, एवं उसकी सुरक्षा की सांत्‍वना के साथ इस नव वर्ष में निर्भयता के साथ प्रवेश करें। प्रभु आपको आशीष दें।

© डॉ. मैथ्‍यू के. थॉमस, 2010, इटारसी.

Saturday, December 5, 2009

Outline of Theology in Hindi - Part I (Introduction and Bibliology)

बाइबिल के प्रमुख सिद्धांत एवं शिक्षाओं की समझ हेतु धर्मविज्ञान प्रणाली की रूपरेखा का इस पहले कडी को पढिये।


by Domenic Marbaniang

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GOD BLESS YOU ALL!

Saturday, November 21, 2009

ईश्वरीय जीवन का दान

"And this is the testimony: that God has given us eternal life, and this life is in His Son. He who has the Son has life; he who does not have the Son of God does not have life" (1Jn 5:11-12).

1. अद्वितीय जीवन (Adviteeya Jeevan) – Exclusive Life,Jn.17:3, There’s nothing like it.
2. अनंत जीवन (Ananta Jeevan) – Eternal Life, 1Jn.5:11,12 (Quality not Duration).
3. अलौकिक जीवन (Alaukika Jeevan) – Supernatural Life, 1Cor. 15:47-49.
4. आत्मिक जीवन (Aatmika Jeevan) – Spiritual Life, Rom. 8:10,11.
5. अमूल्य जीवन (Amulya Jeevan) – Invaluable Life, 1Pet.1:18,19. Life of His blood.
6. अलोकित जीवन (Alokit Jeevan) – Illuminated Life, Jn. 8:12; Jn.1:3; Eph.5:8.
7. अविनाशी जीवन (Avinashi Jeevan) – Imperishable Life, 1Cor.15:51-53; 2Cor.4:16
8. अमर जीवन (Amar Jeevan) – Immortal Life, 1Cor.15:25,26,53; Heb. 2:14; Rev.2:11; 20:6.
9. अपरिमित जीवन (Aparimita Jeevan) – Infinite Life, boundless, abundant, Jn.10:10.
10. अपराजित जीवन (Aparaajita Jeevan) – Invincible Life, Rom.5:17,21; Rom.8:37; 1Jn.4:4.

Monday, August 31, 2009

मेरी माता के पुत्र मुझसे अप्रसन्‍न थे।

'मुझे इसलिए न घूर कि मैं साँवली हूं, क्योंकि मैं धूप से झुलस गई। मेरी माता के पुत्र मुझ से अप्रसन्न थे, उन्होंने मुझ को दाख की बारियोंकी रखवालिन बनाया? परन्तु मैं ने अपनी निज दाख की बारी की रखवाली नहीं की!' (1:6)

उपरोक्‍त आयत में शूलेमी अपनी दु:खपूर्ण गाथा सुना रही है। उसका अपने प्रेमी से प्रेम होने की वजह से उसकी माता के पुत्र अर्थात उसके अपने ही भाई अत्‍यधिक नाराज गये, उन्‍होंने उसे दाख की रखवालिन बना दिया। अत्‍यधिक तेज धूप में दाख की रखवाली करने के कारण शूलेमी के शरीर का रंग सांवला हो गया। शूलेमी को अपने ही परिवार के लोगों ने सताया तथा उसके सच्‍चे प्रेम को तोड़ने की कोशीश की। शूलेमी ने तो वफादारी के साथ अपने भाइयों की दाखबारियों की देखभाल की परन्‍तु वह अपनी बारी की रक्षा न कर सकी।

जब एक विश्‍वासी मसीह की ज्‍योति में आ जाता है तभी उसे अपने पूर्वजीवन का सारा कालापन दिखाई देता है। तभी सारी कमजोरियां दिखाई देती हैं। शूलेमी की सतावट घर से ही थी। बाहरी पीड़ा से घर की पीड़ा अधिक कष्‍टकर होती है। जो लोग सच्‍चाई के मार्ग में आगे बढ़ना चाहते हैं उन्‍हें घरवाले ही रोकेंगे। यीशु ने भी इस सच्‍चाई को नहीं छिपाया बल्कि चेतावनी देते हुए कहा: 'तुम्‍हारे माता पिता, भाई और कुटुम्‍ब ही तुमको पकड़वाएंगे' (लूका 21:16)।

प्रथम शताब्‍दी में जो सतावट मसीहियों पर आयी वह धर्मावलम्बियों की ही तरफ से थी। ठीक उसी प्रकार आज भी सच्‍चे विश्‍वासी को नामधारी मसीहियों की ओर से बहुत कष्‍ट दिये जा रहे हैं। आपके लिए मेरा यही निवेदन है - हे परमेश्‍वर के जन, अगर दुनियां तुझे घूर कर देखती है तो देखने दे। तू तो अपने हृदय की दृष्टि में अपने परमेश्‍वर को देख। तेरी दृष्टि हमेशा तेरे प्रेमी पर ही लगी रहे।

डॉ. कुरियन थामस की पुस्‍तक परिणयगाथा से। © Dr. Kurien Thomas, 1989

Saturday, August 29, 2009

मैं काली तो हूं


"मैं काली तो हूं परंतु सुन्दर हूं, केदार के तम्बुओं और सुलेमान के पर्दे के तुल्य हूं।" (1:5)

इब्रानी भाषा का शब्द जो कालेपन के लिए यहां प्रयोग में लाया गया है वह 'शोरा' है जिस का अर्थ है धूप के कारण आनेवाला कालापन। यह कालापन पुराने पापमय जीवन को दर्शाता है। स्वाभाविक रूप से काली होने पर भी वह ईश्वरीय प्रेम में सुंदर है। मसीह का प्रेम भी परिवर्तन लाने वाला होता है जो हमें अर्थात कलीसिया को सर्वांग सुंदर बना देता है। प्रेमी भी अपनी प्रेमिका को जिस प्रकार सर्वांग स्वीकार करता है ठीक उसी प्रकार प्रभु यीशु मसीह ने कलीसिया को ग्रहण किया है।

प्रेमिका अपनी तुलना केदार के तम्बुओं तथा सुलेमान के पर्दों से करती है। यह पवित्र लोगों में पाई जाने वाली पवित्रात्मा की सुन्दरता के तुल्य है। पवित्र लोगों के धर्म के कार्यों की तुलना चिरकाल तक स्थिर रहेगी (प्रकाश. 19: 8)।

डॉ. कुरियन थामस की पुस्तक परिणयगाथा से। © Dr. Kurien Thomas, 1989

Friday, August 28, 2009

प्रेमिका की आकांक्षा और संगति

‘मुझे खींच ले, हम तेरे पीछे दौड़ेंगे (श्रेष्‍ठगीत 1:4)
संसार, शरीर और शैतान तीनों मिलकर विश्‍वासी के पीछे पीछे दौड़ते हैं कि उसे हरावें परन्‍तु विश्‍वासी की इच्‍छा इस परिस्थिति से भगने की है। वह पाप के पीछे नहीं भागता बल्कि प्रेमी अर्थात प्रभु के पीछे भागता है। दौड़ने वाला जीवन क्रियाशील जीवन है। फिर मसीही विश्‍वासी का दौड़ना कोई अकेला नहीं है, वह मसीह के साथ दौड़ता है। ‘हम तेरे पीछे दौड़ेगे’ ये शब्‍द शुलेमी के नहीं, परन्‍तु यरूशलेम की पुत्रियों का हैं। जब प्रेमिका अपने प्रेमी के पीछे दौड़ेगी तो यरूशलेम की पुत्रियां भी उस्‍के पीछे दौड़ना चाहती हैं।

Adapted from Parinaygatha by Dr. Kurien Thomas, Itarsi
Copyright © Dr. Kurien Thomas, 1989