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Monday, May 20, 2013

Hindi Theology Outline (Part 1) - 13 Audio Lectures



हिन्‍दी धर्मविज्ञान सर्वेक्षन आडियो शिक्षाएं

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Audio FilesVBR MP3Ogg Vorbis
01-Theology Meaning and Significance.mp35.0 MB 3.9 MB 
02-Divisions of Theology.mp34.4 MB 3.2 MB 
03-Different Theologies.mp313.2 MB 9.5 MB 
04-Bibliology-Revelation.mp38.1 MB 5.9 MB 
05-Bibliology-Purpose Reliability.mp37.3 MB 5.5 MB 
06-Bibliology-Inspiration Infallibilty.mp38.1 MB 6.7 MB 
07-Bibliology-Canon Symbols.mp38.2 MB 6.5 MB 
08-Theology Proper.mp312.8 MB 9.8 MB 
09-Trinity.mp39.0 MB 6.9 MB 
10-Christology Nature.mp35.5 MB 4.1 MB 
11-Christology Person Scriptural Proofs.mp312.8 MB 9.7 MB 
12-Pneumatology Person and Works.mp315.6 MB 11.1 MB 
13-Pneumatology Baptism Gifts and Fruit.mp320.1 MB 14.9 MB 
14-Creation.mp320.1 MB 14.8 MB 
15-Angelology.mp312.2 MB 8.7 MB 
16-Demonology Satan.mp38.8 MB 6.5 MB 
17-Demonology - Demons Casting Demons.mp316.0 MB 11.3 MB 
18-Anthropology.mp315.0 MB  
19-Atonement.mp310.6 MB  
20-Soteriology Justification Regeneration17.1 MB  
21-Soteriology Sanctification8.7 MB  
22-Ecclesiology.mp312.7 MB  
23-Eschatology.mp316.7 MB 

Friday, November 11, 2011

Hindi Messages (M4a & Mp3 Audios) from Bilaspur Convention

Following are links to audio files (m4a, Apple Lossless Audio) of messages delivered at the 6th Chattisgarh Annual IPC Convention, Oct 2011 (Note: All messages are in Hindi):

DOWNLOAD MP3s FROM SKYDRIVE

M4A FILESDOWNLOAD LINK
Marbaniang-Deny Self and Follow Christ.m4a19.1 MB Download  
Marbaniang-Everlasting Arms of God.m4a13.4 MB Download   
Marbaniang-Faith That Raises Dead.m4a12.9 MB Download  
Marbaniang-Made For A Purpose.m4a19.1 MB Download   
Marbaniang-The Lord's Table.m4a9.4 MB   Download  
Marbaniang-Young Christian.m4a4.4 MB   Download  

Wednesday, October 12, 2011

Sukhi Parivar Ke Saat Lakshan (सुखी परिवार के सात लक्षण)

7 Characteristics of a Happy Family (Hindi)

Living Word Chapel, Sanjaynagar
October 11, 2011
Dr. Domenic Marbaniang

परमेश्‍वर चाहता है कि हमारा परिवार सुखी हो। आज हम सुखी परिवार के सात लक्षण देखेंगे, लेकिन इसका मतलब यह नही की लक्षण सात ही है। जैसे जैसे आप और नई बातें सीखेंगे आप इसमें जोडते जाएं।
निम्‍न बिन्‍दुओं पर गौर करें। संक्षिप्‍त में विवरण भी दिए गएं है।

1. स्‍नेह (Love)

परिवार में स्‍नेह भावना आवश्‍यक है। परमेश्‍वर चाहता है कि परिवार ही स्‍नेह का सर्वोत्‍तम स्‍थान बनें। जब परिवार में इसकी कमी होती है तो सदस्‍य घर से बाहर स्‍नेह की तालाश करते है जिसके कारण परिवार की मजबूती ज्‍यादा नही रह पाती है।

2. समझ (Understanding)

आपसी मतभेद के बावजूद एक दूसरे को समझने का प्रयास करना अतिआवश्‍यक है। कई बार सदस्‍य एक दूसरे पर दोश लगाने लगते है कि वे समझते नही या ये समझते नही। दोश लगाने से कुछ भला नही होता। समझ प्रेम और विश्‍वास का बंधन है।

3. समर्पण (Devotedness)

परिवार मे लक्ष्‍य एवं समर्पण की भावना होना चाहिए। समर्पण आपसी हो और लक्ष्‍य पर केंद्रित हो। यहोशु को याद करे जिसने कहा कि वह अपने घराने समेत ईश्‍वर की सेवा करेगा। समर्पण एवं कर्तव्‍य निष्‍ठा साथ साथ चलते है।
घर के अध्‍यक्ष का परिवार के लिए कुछ लक्ष्‍य रखें है। ईश्‍वर भी जगत में पारिवारिक उददेश्‍य रखता है। उददेश्‍य समर्पण को निर्धारित करता है।

4. स्‍वास्‍थ्‍य (Health)

ईश्‍वर न केवल दैवीय चंगाई देता हे बल्कि दैवीय स्‍वास्‍थ भी प्रदान करता है। लेकिन हमें इसके विषय में बेपरवाही नही होना चाहिए। खानपान, रहन सहन, रख रखाव इन सारी बातों पर स्‍वास्‍थ केंद्रित ध्‍यान धरें।

5. सम्‍मान (Honor)

एक दूसरे को सम्‍मान दें। त्रिएक परमेश्‍वर हमारे लिए आदर्श है। पिता पुत्र और पवित्रात्‍मा के बीच जिस प्रकार आपसी सम्‍मान की भावना है, वही भावना परिवार के सम्‍मान को भी बढ़ाता है।

6. सलाह (Counsel)

सलाह एवं सम्‍मति परिवार में हो तो व्‍यक्ति यहां वहां भटकने से बच सकते है। भजन 1 के अनुसार परमेश्‍वर चाहता है कि धर्मशास्‍त्र हमारे घर के बुनियाद बन जाए। अकसर टीवी और सिनेमा बुरी सलाह से मन को भरमा देते है। परन्‍तु जो घर वचन पर स्‍थापित है वह़ बना रहेगा।

7. सहभागिता (Communion)

यदि सहभागिता न हो, आपसी वार्तालाप न हो तो फिर परिवार टूटने लगता है। अंग्रजी में कहावत है "The family that prays together stays together" अर्थात जो परिवार मिलकर आराधना करता है वह मिलकर साथ रहता है। परमेश्‍वर के साथ हमारी सहभागिता हो और यह एक दूसरे के साथ की सहभागिता का सही संदर्भ उत्‍पन्‍न करेगा।

परमेश्‍वर आपको आशीष दें।

Thursday, September 29, 2011

त्रिएकता की महत्‍वपूर्णता

संजयनगर

त्रिएकता का सिद्धांत बाईबल में बडा महत्‍व रखता है। यह न केवल तर्कसंगत है बल्कि बाईबल आधारित है।

1. त्रिएकता सदगुण का आधार है

सदगुणों का अस्तित्‍व आनादीकाल से है। वे अनंत है इस कारण से निरपेक्ष्‍ा है। वे अनंत इस लिए है क्‍यों कि उनका अस्तित्‍व त्रिएकता परमेश्‍वर में है। परमेश्‍वर निर्गुण नही है। अगर वैसा होता तो भलाई और बुराई, शुभ एवं अशुभ का कोई शास्‍वत अर्थ नही रहता। बाईबल बताती है कि परमेश्‍वर प्रेम है। और प्रेम अनेकता में एकता का सदगुण है। यदी परमेश्‍वर जगत के निर्माण से पहले अकेला ही होता तो प्रेम अर्थहीन होता क्‍योंकि फिर वह किस से प्रेम करता। फिर प्रेम स्‍वयं एक लौकिक आवश्‍यकता बनती और इसका आलौकिक आधार नही होता। अनादीकाल से पिता, पुत्र, एवं पवित्रात्‍मा की एकता ही सदगुण का अनंत आधार है।

2. त्रिएकता संबंध का आधार है

भाषा में भी हम तीन व्‍यक्तित्‍व का प्रयोग जानते है। मै, तुम, और वह। अनंतकाल से त्रिएक परमेश्‍वर आत्‍मा का प्रेम के संबंध में एक है। यही एैक्‍य मनुष्‍यों में भी प्रेम पर आधारित रिश्‍तों का आधार है।
यह एकता अहम रहित है। यही सच्‍ची संगती और सहभागिता का आधार भी है।

3. त्रिएकता सत्‍य का आधार है

वही व्‍यक्तिवाचक एवं विषयवाचक का आधार है। यदी ईश्‍वर जगत के निर्माण से पहले त्रिएक न होता तो उसे किसी वस्‍तु का ज्ञान भी नही होता, अर्थात सत्‍य ज्ञान का अस्तित्‍व भी नही होता। पर पिता, पुत्र, एवं पवित्रात्‍मा अनादी काल से एक दूसरे के ज्ञान से परिपूर्ण है। यही जगत में भी सत्‍य का आधार है।

यह जानना आवश्‍यक है कि त्रिएकता का अर्थ त्रिमूर्तीवाद या तीनैश्‍वरवाद नही है। परमेश्‍वर तीन नही पर एक है। तीनों व्‍यक्तित्‍व की केवल एक ही तत्‍व है। और वे एक है। यह समझना मनुष्‍यों के लिए कठिन है, पर यह तर्क द्वारा अपेक्षित भी है।

Sunday, August 7, 2011

परमेश्‍वर को सदा धन्‍य कहना


पाठ - भजन 103: 1-5

प्रचारक - डॉ. डामिनिक मारबनियांग
स्‍थान - बुढार

Psa 103:1 हे मेरे मन, यहोवा को धन्य कह और जो कुछ मुझ में है, वह उसके पवित्र नाम को धन्य कहे!
Psa 103:2 हे मेरे मन, यहोवा को धन्य कह, और उसके किसी उपकार को न भूलना।
Psa 103:3 वही तो तेरे सब अधर्म को क्षमा करता, और तेरे सब रोगोंको चंगा करता है,
Psa 103:4 वही तो तेरे प्राण को नाश होने से बचा लेता है, और तेरे सिर पर करूणा और दया का मुकुट बान्धता है,
Psa 103:5 वही तो तेरी लालसा को उत्तम पदार्थोंसे तृप्त करता है, जिस से तेरी जवानी उकाब की नाईं नई हो जाती है।।

परमेश्‍वर को सदा धन्‍य कहना।
अपने मन को आदेश दें की मन परमेश्‍वर को धन्‍य कहें
- क्‍योंकि मन सब से अधिक धोखा देने वाला है
- कयोंकि मन परमेश्‍वर को धन्‍यवाद देने से पीछे हट जाता है

परमेश्‍वर को धन्‍य कहना है- सम्‍पूर्णता से. जो कुछ मुझ में है, वह उसके पवित्र नाम को धन्य कहे! यदि कुछ हममे ऐसा है जो उसके पवित्र नाम को धन्‍य नही कह सकता तो आज सम्‍पूर्ण समर्पण की आवश्‍यक्‍ता है।
- स्‍मरण करके. उसके किसी उपकार को न भूलना। अपने आप को उसकी भलाई याद दिलाने से स्‍वयं में गवाही होता है जिससे विश्‍वास मजबूत होता है। याद रखें कि वह हमारे सिर पर करूणा और दया का मुकुट बान्धता है। जब निराशा और अविश्‍वास का बादल छा जाएं तो अपने मुकुट को याद रखें।

परमेश्‍वर की आशीषेंक्षमा - वही तो तेरे सब अधर्म को क्षमा करता
स्‍वास्‍थ्‍य, सेहत - तेरे सब रोगोंको चंगा करता है
सुरक्षा - वही तो तेरे प्राण को नाश होने से बचा लेता है
संतुष्टि - वही तो तेरी लालसा को उत्तम पदार्थोंसे तृप्त करता है

वह हमें सम्‍पूर्ण रीति से आशीषित करता है। इसलिए आईए हम सम्‍पूर्ण जीवन से और उसके भलाईयों को स्‍मरण करते हुए उसे धन्‍य कहते रहेा

Saturday, July 2, 2011

Faith Births Miracles (John 6:1-14)

Text: John 6:1-14 (The Feeding of the Five Thousand)

After these things Jesus went over the Sea of Galilee, which is the Sea of Tiberias. Then a great multitude followed Him, because they saw His signs which He performed on those who were diseased. And Jesus went up on the mountain, and there He sat with His disciples. Now the Passover, a feast of the Jews, was near. Then Jesus lifted up His eyes, and seeing a great multitude coming toward Him, He said to Philip, "Where shall we buy bread, that these may eat?" But this He said to test him, for He Himself knew what He would do. Philip answered Him, "Two hundred denarii worth of bread is not sufficient for them, that every one of them may have a little." One of His disciples, Andrew, Simon Peter's brother, said to Him, "There is a lad here who has five barley loaves and two small fish, but what are they among so many?" Then Jesus said, "Make the people sit down." Now there was much grass in the place. So the men sat down, in number about five thousand. And Jesus took the loaves, and when He had given thanks He distributed them to the disciples, and the disciples to those sitting down; and likewise of the fish, as much as they wanted. So when they were filled, He said to His disciples, "Gather up the fragments that remain, so that nothing is lost." Therefore they gathered them up, and filled twelve baskets with the fragments of the five barley loaves which were left over by those who had eaten. Then those men, when they had seen the sign that Jesus did, said, "This is truly the Prophet who is to come into the world."(John 6:1-14)

1. The Supernatural Perspective of Faith

He said to Philip, "Where shall we buy bread, that these may eat?" .... Philip answered Him, "Two hundred denarii worth of bread is not sufficient for them,..." One of His disciples, Andrew, Simon Peter's brother, said to Him, "There is a lad here who has five barley loaves and two small fish, but what are they among so many?" Then Jesus said, "Make the people sit down."

The disciples had a natural and rational perspective; but, Jesus had a supernatural perspective. What reason sees as naturally impossible, faith sees as supernaturally possible.

2. The Spoken Word of Faith

Then Jesus said, "Make the people sit down."

The disciples were speaking negative words of fear. Jesus spoke the positive words of divine confidence.

3. The Specific Act of Faith

And Jesus took the loaves, and when He had given thanks He distributed them to the disciples, and the disciples to those sitting down; and likewise of the fish, as much as they wanted.

Jesus did not just speak faith, He acted according to it. Faith without works is dead. Do what you believe God can do through you!

4. The Sumless Power of Faith

So when they were filled, He said to His disciples, "Gather up the fragments that remain, so that nothing is lost." Therefore they gathered them up, and filled twelve baskets with the fragments of the five barley loaves which were left over by those who had eaten.

There is nothing impossible for Jesus and nothing impossible for those who believe in Jesus, i.e. those who walk according to His will.

Believe in Jesus and experience His miraculous power in your life right now!

Faith Births Miracles (John 6:1-14)

Text: John 6:1-14 (The Feeding of the Five Thousand)

After these things Jesus went over the Sea of Galilee, which is the Sea of Tiberias. Then a great multitude followed Him, because they saw His signs which He performed on those who were diseased. And Jesus went up on the mountain, and there He sat with His disciples. Now the Passover, a feast of the Jews, was near. Then Jesus lifted up His eyes, and seeing a great multitude coming toward Him, He said to Philip, "Where shall we buy bread, that these may eat?" But this He said to test him, for He Himself knew what He would do. Philip answered Him, "Two hundred denarii worth of bread is not sufficient for them, that every one of them may have a little." One of His disciples, Andrew, Simon Peter's brother, said to Him, "There is a lad here who has five barley loaves and two small fish, but what are they among so many?" Then Jesus said, "Make the people sit down." Now there was much grass in the place. So the men sat down, in number about five thousand. And Jesus took the loaves, and when He had given thanks He distributed them to the disciples, and the disciples to those sitting down; and likewise of the fish, as much as they wanted. So when they were filled, He said to His disciples, "Gather up the fragments that remain, so that nothing is lost." Therefore they gathered them up, and filled twelve baskets with the fragments of the five barley loaves which were left over by those who had eaten. Then those men, when they had seen the sign that Jesus did, said, "This is truly the Prophet who is to come into the world."(John 6:1-14)

1. The Supernatural Perspective of Faith

He said to Philip, "Where shall we buy bread, that these may eat?" .... Philip answered Him, "Two hundred denarii worth of bread is not sufficient for them,..." One of His disciples, Andrew, Simon Peter's brother, said to Him, "There is a lad here who has five barley loaves and two small fish, but what are they among so many?" Then Jesus said, "Make the people sit down."

The disciples had a natural and rational perspective; but, Jesus had a supernatural perspective. What reason sees as naturally impossible, faith sees as supernaturally possible.

2. The Spoken Word of Faith

Then Jesus said, "Make the people sit down."

The disciples were speaking negative words of fear. Jesus spoke the positive words of divine confidence.

3. The Specific Act of Faith

And Jesus took the loaves, and when He had given thanks He distributed them to the disciples, and the disciples to those sitting down; and likewise of the fish, as much as they wanted.

Jesus did not just speak faith, He acted according to it. Faith without works is dead. Do what you believe God can do through you!

4. The Sumless Power of Faith

So when they were filled, He said to His disciples, "Gather up the fragments that remain, so that nothing is lost." Therefore they gathered them up, and filled twelve baskets with the fragments of the five barley loaves which were left over by those who had eaten.

There is nothing impossible for Jesus and nothing impossible for those who believe in Jesus, i.e. those who walk according to His will.

Believe in Jesus and experience His miraculous power in your life right now!

Tuesday, July 20, 2010

Aham Se Uddhar - अहं से उद्धार

रविवार, जुलाई 11, 2010. पेंटिकॉस्‍टल चर्च, इटारसी
वक्‍ता: डॉ. डॉमिनिक मारबनियंग


''कुरियन थॉमस के चार दुश्‍मन हैं: संसार, शरीर, शैतान, और कुरियन थॉमस। आखिरी दुश्‍मन सब से खतरनाक हैं।'' -डॉ कुरियन थॉमस

कहा जाता है कि लंदन के टाईम मैगज़ीन ने एक बार ''संसार के साथ क्‍या समस्‍या है'' विषय पर कुछ लेख प्रकाशित किये थे। सब से लघु उत्‍तर विख्‍यात लेखक चेस्‍टरटन ने भेजा, और वह इस प्रकार था:


आदर्णीय सम्‍पादक महोदय,
आपके प्रश्‍न के संबंध में कि ''संसार के साथ क्‍या समस्‍या है'',

मै हुँ,

आपका
जी.के. चेस्‍टरटन

एक पादरी साहब रविवार सुबह के लिए संदेश बनाने में व्‍यस्‍त थे। तभी उनका बेटा आकर जिदद् करने लग गया कि ''आओ, पापा, मेरे साथ खेलो''। परेशान हो पिताजी ने एक विश्‍व के मानचित्र को 10 टुकडों में फाड़ कर बेटे को दिया और कहा कि ''जाओ इसे सही कर के लाओं।'' वे सोच रहे थे कि इस से बेटा व्‍यस्‍त हो जाएगा और उनको तैयारी का समय मिल जाएगा। लेकिन बेटा थोडी ही देर में लौट गया, और वह मानचित्र भी सही कर लाया था। चकित हो जब पिता ने पूछा किे वह इतना जलदी इसे कैसे ठीक कर दिया, तो बेटे ने उत्‍तर दिया ''सरल था: जब आप नक्‍शा फाड़ रहे थे तो मैने देखा कि पीछे एक मनुष्‍य का चित्र है। बस, मै समझ गया कि यदी मनुष्‍य को ठीक कर दिया जाए तो दुनिया भी ठीक हो जाएगा। सो, मैने मनुष्‍य को ठीक कर दिया तो दुनिया का नक्‍शा भी ठीक हो गया।''
पादरी साहब को अगले दिन के लिए संदेश मिल गया था।


मनुष्‍य ही समस्‍या है और वह अपना स्‍वयं का सबसे घातक शत्रु हैं।

मनुष्‍य स्‍वयं अपना ही इतना बडा शत्रु क्‍यों है ? आईए देखें:

1.क्‍योंकि वह पाप के हाथ बिका हुआ हैं। (रोम 7:14) – पाप उसका स्‍वामी है। वह जो चाहता है उसे नही कर पाता है, परन्‍तु जो नही चाहता है उसे ही कर बैठता है।
2.क्‍योंकि उस में कोई भी भली बात नही है। (रोम.7:18)– शिक्षा शायद मनुष्‍य को सभ्‍यता का वस्‍त्र पहना सकती है, परन्‍तु उसके स्‍वभाव को बदल नहीं सकती है।
एक क्‍वाज़ी के पास उसका मित्र अपनी समस्‍या बता रहा था। उसका बेटा बडा ही अनाज्ञाकारी था। क्‍वाज़ी ने सलाह दिया कि बेटे को अच्‍छी शिक्षा दी जाए। उसने अपनी ही बिल्‍ली का उदाहरण देते कहा कि ''देखो इसे, यदी इसे प्रशिक्षण नही दिए होते तो क्‍या यह ऐसा खामोश और शान्‍त बैठा रहता? हमने इसे हमारी आदेशों का पालन करना सिखाया।'' इस बुद्धिमानी के शाब्‍दों को सुनकर मित्र वापस लौटा। फिर कुछ वर्षों के बाद वह लौटा, तो क्‍वाज़ी ने बेटे का हाल पूछा। मित्र ने अपने साथा लाए एक छोटे से बक्‍से को खोल दिया, और तुरन्‍त उसमें से एक चूंहा छलांग लगाकर बाहर निकला। इसे देखकर बिल्‍ली से रहा नही गया। वह भी छलांग लगायी और उसके पीछे दौडने लगी। मित्र ने कहा ''क्‍यों, शिाक्षा तो सभ्‍य बनाती है, पर स्‍वभाव तो वैसे का वैसा ही है।'' कया इसमें कोई संदेह है कि संसार के शिक्षित वर्ग पाप और लालच से अछूता? हम इस बात को भली भांति जानते है। बिना ईश्‍वर की सहायता के कौन व्‍यक्ति
3.क्‍योंकि वह शारिरिक हैं और शरीर के कायों का गुलाम हैं (रोम.7:5)
4.कयोंकि उसका मन परमेश्‍वर का शत्रु हैं और वह परमेश्‍वर की व्‍यवस्‍था का आधीन नही हो सकता। (रोम.8:7)
5. क्‍योंकि वह अपने ही विरुद्ध में जंग करता हैं। (याकूब 4:1, 1पत. 2:11)
6.क्‍योकि वह अपने ही आप को समझने में गलती करता हैं और अहंकार या निराशा से अपने आप को घायल कर देता है। (यशयाह .14:12 में शैतान की यही समस्‍या थी- वह अहंकार से ग्रसित था।
7. क्‍योंकि वह मूर्खता और बावलापन से भरा हुआ है। (सभोपदेशक 9:3)
8.क्‍योकि उसका मन धोखा देने वाला मन है। (यर्म.17:9). वह मुझे गलत बातों को सही सोचने का भ्रम में डालता हैं।. ग्‍लास में नाचते लाल शराब मुझे विष के बदले प्रमोद प्रतीत होता है।.
9.क्‍योंकि उसका विवेक दूषित हो गया हैं और भलाई और बुराई मे सही फ़र्क नही बता पाता (तीतुस 1:15)
10.क्‍योंकि वह अपने आप से भाग नहीं पाता। आप जहा क‍ही जाएं आप अपने आप को वही पातें हैं। एक बालक अपने परछाई से भागता हुआ अपनी मां के पास गया और कहने लगा ''देखों न मां, यह पीछे पीछे आता है।'' क्‍या कोई अपनी ही परछाई से भाग सक है।
11.क्‍योंकि वह अपना ही विरोध करता है और एक विरोधक और असंगत जीवन शैली उत्‍पन्‍न करता है। (प्रेरित 18:6, तिम.2:25, KJV)


2 गलत मार्गें जिससे समस्‍या और जटिल हो जाती है:

1.बढ़प्‍पन: शक्ति, रुपैया, शान और शौकत, या धार्मिक प्रभाव की चेष्‍टा
2.बचावपन: नशीली पदार्थों की सेवन, गलत यौन सम्‍बंध, पार्टियां, शराब इत्‍यादी अपने आप से बचने के मार्ग

समस्‍या का समाधान केवल यीशु मसीह ही है।अपने देहधारण में उसने अपने आप को शून्‍य कर हमारे उद्धार के लिए मानव रूप धारण किया।
क्रूस पर पापों के बदले बलिदान देकर उसने हमें हमारी पापमय अवस्‍था से बचने का मार्ग तैयार किया।
मृतकों में से जी उठकर उसने हमें नया जीवन जीने का सामर्थ उपलब्‍ध कराया। सो जो मसीह में हैं वे नई सृष्टि हैं और उसके पुनुरुत्‍थान का सामर्थ उनमें विश्‍वास के द्वारा काम करता है।

जिस दशा में हम है, उसी दशा में वह हमसे प्‍यार करता है
जिस दशा में हम है, उसी दशा में वह हमें अपने पास बुलाता है।

Thursday, July 15, 2010

4 Guards Over Life -जीवन के चार पहरें – (Proverbs 4:20-27)

Forthcoming in Satyadoot Magazine, Itarsi, August 2010

संसार में मनुष्य हर बहुमूल्यक बात की सुरक्षा का उपाय करता है। घर के अलमारियॉ, संदूकें, दरवाजें, एवं खिडकियॉ तालों के तले सुरक्षित पाएं जाते ही हैं, साथ ही साथ कुछ लोग अधिक सुरक्षा के लिए पहरेदारों को भी नियुक्त कर देते हैं, क्योंकि हर व्यसक्ति जानता है कि इस संसार में उसकी सुरक्षा की जिम्मेीदारी प्रथमत: उसी पर ही हैं, और यह संसार एक दुष्टक लोक है। लेकिन भौतिक वस्तुतओं से भी अधिक मूल्यंवान मनुष्या के कुछ ऐसी बातें हैं जिनकी सुरक्षा करने में यदी वह विफल हो जाएं तो वह सब कुछ खो देता हैं। इसीलिए पवित्रशास्त्रि हमे चिताता है:

हे मेरे पुत्र मेरे वचन ध्यान धरके सुन, और अपना कान मेरी बातों पर लगा। इनको अपनी आंखों की ओट न होने दे? वरन अपके मन में धारण कर। क्योंकि जिनकों वे प्राप्त होती हैं, वे उनके जीवित रहने का, और उनके सारे शरीर के चंगे रहने का कारण होती हैं। सब से अधिक अपने मन की रक्षा कर? क्योंकि जीवन का मूल स्रोत वही है। टेढ़ी बात अपके मुंह से मत बोल, और चालबाजी की बातें कहना तुझ से दूर रहे। तेरी आंखें साम्हने ही की ओर लगी रहें, और तेरी पलकें आगे की ओर खुली रहें। अपने पांव धरने के लिये मार्ग को समथर कर, और तेरे सब मार्ग ठीक रहें। न तो दहिनी ओर मुढ़ना, और न बाईं ओर? अपने पांव को बुराई के मार्ग पर चलने से हटा ले।।(नीतिवचन 4:20-27)

इस वचन-पाठ में हम जीवन के उन चार महान पहरुओं को देखते हैं जिससे मनुष्यत मनुष्योंत और परमेश्वकर के सन्मुनख में जाना जाता है। वे चार अंग है: हृदय, मुंह, आंखें, एवं पांव। इन चारों की चौकसी का जिम्मार व्यढ़क्तिगत तौर पर हमारा ही है।

हृदय का पहरा

हृदय या मन के विषय में बताया गया है कि सब से अधिक इसी की रक्षा हमें करना हैं, क्योंकि जीवन का मूल स्रोत वही है। दूसरे शब्दों में मनुष्यब का सब से महत्व पूर्ण अंग उस का हृदय ही है। इसके कई कारण हैं। पहले तो, हृदय की स्थिति ही मनुष्यय की स्थिति को निर्धारित करती हैं। इसलिए, नीतिवचन 12:25 कहता है किे उदास मन दब जाता है या एक व्यिक्ति को निरुत्सा हित एवं कर्महीन कर देता है, लेकिन अच्छास खबर सुनते ही वह आनंदित हो जाता है। उसी प्रकार, मनुष्यक जिस बात की आशा लगाए बैठा है, उस बात का पूरा होने में जब विलम्ब होता है तो वह शिथिल और पत्थरर समान बन जाता है, लेकिन उस आशा के पूरे होने पर ऐसा मानों उसके जी में जान आ गया हो (नीतिवचन 13:12)। फिर, हृदय ही वह अंदुरूणी कक्ष है जहा पर मनुष्यब का चरित्र का निर्माण होता है। यीशु मसीह ने कहा कि भला मनुष्य अपने मन के भले भण्डायर से भली बातें निकालता है, और बुरा मनुष्य अपने मन के बुरे भण्डा र से बुरी बातें निकालता है? क्योंकि जो मन में भरा है वही उसके मुंह पर आता है'' (लूका 6:45)। हम अपने हृदय में जिन विचारों और कार्यों को पनपने देते हैं, वे ही हमारे जीवन के निर्धारक बन जाते हैं। जब मनुष्य। असावधान होकर बुराई को अपने हृदय में जड पकडने दे देता है तो उसके हृदय से "बुरी बुरी चिन्ता, व्यभिचार...चोरी, हत्या, परस्त्रीगमन, लोभ, दुष्टरता, छल, लुचपन, कुदृष्टिज, निन्दा, अभिमान, और मूर्खता ... निकलती हैं और मनुष्य को अशुद्ध करती हैं’’ (मरकुस 7:21;23)। लेकिन जो पवित्र बाइबिल के वचनों को दिल पर राज्यर करने देता है, उसके जीवन में प्रेम, आनन्दत, मेल, धीरज, कृपा, भलाई, विश्वा स, नम्रता, और संयम नामक आत्मा का फल लग कर उसे आत्मिक और चरित्रमान बना देती है। नीतिवचन 4:21 में कहा गया है कि हमें वचनों को प्रति‍दिन धारण करना हैं। अंग्रजी का एक अनुवाद में कहा गया है कि हमें इसे दिल के मध्या में या केंद्र बिंदु पर रखना है। जब हम परमेश्वैर के वचन को अपने हृदय के मध्य में रख देते हैं तो वह हमारे सम्पूयर्ण्‍ जीवन को नियंत्रित कर हमें उन सारे वेदनाओं और दुखों से बचाता हैं जो पाप के कडवे जड से उपजते हैं।

मुंह का पहरा

याकूब 3:2 के अनुसार जो अपने जीभ पर काबू कर लेता है, वह अपने सारे शरीर पर नियं‍त्रण पा लेता हैं। जब हम जीभ को यूं ही फिसलने दे देते है, और जो मुंह आए उसे ही कह देते है तो हम अनियंत्रित और मूर्ख बन जाते हैं, क्योंनकि वचनों से मनुष्यर की बुद्धि जानी जाती है। हमारे वचन सच्चे और लाभदायक होने चाहिए। याकूब कहता है कि हमें अपने जुबान पर लगाम बांध देनी चाहिए, अर्थात हमें उसे इधर उधर भटकने से बचाना चाहिए, हमें उसे सही दिशा और निशाने पर बनाए रखना चाहिए। जिसके हृदय में ईश्वार के वचनों का मनन होता है, उसके जीभ पर ईश्वअर के कामों की प्रशंसा, स्तुअति, विश्वा स का अंगीकार, खराई, एवं सच्चाजई के वचन ही रहते हैं। जो ईश्ववर के बातों पर मन नही लगाता है, उसके वचनों में असंतुष्टि, कडुवाहट, निंदा, हिंसा, और हानी ही व्य।क्तअ होते हैं। एक गलत शब्द जीवन और गवाही को नष्टअ कर सकता हैं। वैसे एक जीवनदायक वचन किसी उजडे जीवन को बना भी सकता हैं।

आंखों का पहरा

आंखों के विषय में यह पाठ भाग हमें दो बातें बताती है: हमारी आंखें साम्हने ही की ओर लगी रहें, और हमारी पलकें आगे की ओर खुली रहें। साम्हाने ही की ओर लगाये रखने का अर्थ है कि हमें आगे के तरफ ही बढता चले जाना चाहिए, किसी भी मोड पे पीछे न मुडे। क्या कोई व्यंक्ति पीछे की ओर देख कर साम्हनने दौड सकता है, या नीचे की ओर देखकर पहाड की चोटी पर पहुंच सकता है? यदी हम अपने अतीत से अभी भी झूंझ रहे है तो हम कभी आगे नही बढ सकते। पौलुस कहता है कि वह पिछली बातों को भूल कर आगे की ओर बढता चला जाता है (फिलि 3:13)। यदी हम अतीत की ओर अपनी आंखें लगा देते है तो हम उसके चपेट में फंस जाते है। परमेश्वतर हमें प्रति दिन एक नई सुबह देता है ताकि हम उन पुरानी पाप की बातों से बहुत दूर निकलते चले जाएं। प्रभु में जितना हम आगे बढते जाते है, उतना ही हम पाप से दूर होते जाते है। लेकिन यदि कोई जाल हमें आज भी फंसाए रखा हैं, तो जान जाएं की परमेश्व र हमें उसमे से छुडाने का सामर्थ रखता है। तो क्योंज न हम इस छुटकारे के सौभाग्यि और आाशीष में अपने दिन बढाते जाएं। केवल इतना करना है: विश्वाैस से ठान लें कि आप पुरानी बातों को त्यािग कर यीशु मसीह द्वारा दिया गया नया जीवन को धारण कर लेंगे।

हमारे पलक झपकने न पाएं, क्योंगकि शत्रु शैतान इस ताक में रहता है कि कही हमारा ध्यालन हटे और वह हमें निगल ले जाएं। हमें सदा सतर्क रहना चाहिए। हमें बुद्धिमान व्य क्ति के समान संसार में बडी सचेत्ताध के साथ दिन गुजारना है (इफि 5:14-16)। हम सांसारिक लालच की बातों की तरफ नही परंतु परमेश्वदर के पवित्र बुलाहट पर अपना ध्या(न लगाए रखें। और स्मनरण रखें की आंखों की ज्योकती परमेश्व र का वचन है (मत्ति 6:22,23; भजन 119:130)। इसलिए उसके वचन रूपी दिये को हमेशा अपने निकट रखें, ऐसा न हो किे हम इस अंधकार के लोक में अचानक अपने आप को बेसहारा और लक्ष्यउहीन या दिशाहीन पा जाएं; हमें उसके वचन को हमारी स्‍मृती के उच्चअतम सिरे पर रखना चाहिए (2‍पत 1:19)।

पावों का पहरा

अपने पावों का पहरा रखना हमारा चाल चलन, संगति, एवं प्रगति की चौकसी को दर्शाती है।

संसार में कई गलत शिक्षाएं एवं प्रलोभन हैं जो हमारे पावों तले जमीन को खिसका सकते हैं। लेकिन जो प्रभु के विश्वामस एवं बल पे खडा रहता है, वह कभी हिलने वाला नही (इफि 4:14;16)। बाइबिल हमारा मार्गदर्शक एवं नक्षा बन जाएं; वही हमारे पावों के लिए दीपक और मार्गों के लिए उजियाला बने। हमारा व्य वहार, वाक, एवं व्यषक्त्तिव ईश्वहर की इच्छाप अनुरूप ही रहे।

कभी गलती से भी गलत और बुराई को फैलाने वालों की संगति में अपने पांव जानें न दें। बुरी संगति का बुरा ही प्रभाव होता है। बलकि बुराई से दूर जो भागता है, वह अपना प्राण बचा लेता है (नीति 1:15)। फिर यह भी आवश्यवक है कि बुरी शिक्षा या प्रभाव फैलाने वालों के पॅर अपने घर पर पडने न पाएं (2यूहन्ना1:10,11)।

यदि हम इन महत्वहपूर्ण अंगों की सुरक्षा एवं चौकसी करने में सफल रहें, तो ईश्वपर की ही मदद से हम प्रगति, प्रभाव, और प्रतिफल का अनुभव पाने वालों में होंगे।

डॉमेनिक मरबनयंग, जुलाई 2010

© Domenic Marbaniang, July 2010

Saturday, November 21, 2009

ईश्वरीय जीवन का दान

"And this is the testimony: that God has given us eternal life, and this life is in His Son. He who has the Son has life; he who does not have the Son of God does not have life" (1Jn 5:11-12).

1. अद्वितीय जीवन (Adviteeya Jeevan) – Exclusive Life,Jn.17:3, There’s nothing like it.
2. अनंत जीवन (Ananta Jeevan) – Eternal Life, 1Jn.5:11,12 (Quality not Duration).
3. अलौकिक जीवन (Alaukika Jeevan) – Supernatural Life, 1Cor. 15:47-49.
4. आत्मिक जीवन (Aatmika Jeevan) – Spiritual Life, Rom. 8:10,11.
5. अमूल्य जीवन (Amulya Jeevan) – Invaluable Life, 1Pet.1:18,19. Life of His blood.
6. अलोकित जीवन (Alokit Jeevan) – Illuminated Life, Jn. 8:12; Jn.1:3; Eph.5:8.
7. अविनाशी जीवन (Avinashi Jeevan) – Imperishable Life, 1Cor.15:51-53; 2Cor.4:16
8. अमर जीवन (Amar Jeevan) – Immortal Life, 1Cor.15:25,26,53; Heb. 2:14; Rev.2:11; 20:6.
9. अपरिमित जीवन (Aparimita Jeevan) – Infinite Life, boundless, abundant, Jn.10:10.
10. अपराजित जीवन (Aparaajita Jeevan) – Invincible Life, Rom.5:17,21; Rom.8:37; 1Jn.4:4.